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पेशेंट नहीं, योद्धा

Hindi Short Story

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स्वरचित हिन्दी कहानी प्रतियोगिता - Dec, 2022
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पेशेंट नहीं, योद्धा
लेखिका- सुरभि सिंह, सेक्टर- एच, एल डी ए कॉलोनी, लखनऊ, उत्तरप्रदेश



पेशेंट नहीं, योद्धा
लेखिका- सुरभि सिंह, सेक्टर- एच, एल डी ए कॉलोनी, लखनऊ, उत्तरप्रदेश
25 th June, 2021

# मैं अभी-अभी दवा खाकर बस लेटी हुई थी कि मुझे रोने चीखने की आवाजें सुनाई देने लगी। मैं लपक कर खिड़की के पास खड़ी हो गई। नीचे रोड पर झाँकते ही मेरे चेहरे का रंग उड़ गया। सामने वाले घर में रह रही कांत आंटी चल बसीं। वह भी कोविड पेशेंट थी, मेरी तरह।

"ये कोविड तो सबका काल बन चुका है। लगता है सबको खाकर जाएगा," ये शर्मा आंटी की आवाज थी जो अपनी छत पर खड़ी होकर सामने वाले श्रीवास्तव अंकल से बातें कर रही थीं।

"काल... मतलब इस बार कहीं मेरी बारी ना हो...." आंटी के विचारों ने मेरी घबराहट को बढ़ा दिया। अगले ही पल मुझे दिल के बाएं हिस्से में चुभनसी महसूस होने लगी और सांसे भी अटक रही थीं। खिड़की की सलाख़ों पर मेरी पकड़ मजबूत हो गई...बहुत मजबूत। मानो काल मुझे लेने आया हो और मैं उसके खिलाफ लड़ रही हूं... डटकर खड़ी हो गई हूँ।

"तो क्या गलत है?" आवाज सुनते ही मैंने नजरें घुमाई और हैरान रह गई। मेरे बगल, मुझ जैसी ही एक लड़की मेरे कमरे में खड़ी थी...हुबहूँ मेरे जैसी, मेरी हमशक्ल। मैं चौंक गई और जल्दीसे उससे दूर खड़ी हो गई, लगभग दो गज़ की दूरी पर।

"मास्क कहां है तुम्हारा?" मेरा पहला सवाल यही था। अजीब बात है ना, मैं अपनी हमशक्ल देखकर हैरान नहीं हुई, बल्कि मास्क के बगैर शक़्ल देखकर हैरान थी।

"मुझे मास्क की जरूरत नहीं है," उसने मुस्कुराकर कहा तो मैं भड़क उठी, "आर यू स्टूपिड? मास्क की जरूरत नहीं है, इसका क्या मतलब? जिंदा रहना चाहती हो या नहीं? और....और तुम यहां कैसे आ गई? मैं सेल्फ़-आइसोलेशन में हूं। बिना मास्क के इस कमरे में कोई नहीं आ सकता फिर तुम..?"

"रिलैक्स निधि ..रिलैक्स। ना ही मुझे मास्क की जरूरत है और ना ही किसी कोविड प्रीकॉशन की," उसने मुझे बीच में टोकते हुए कहा तो मैं उसे घूरने लगी। उसकी पागलों जैसी बातें मेरी हैरानी को बढ़ा रही थीं।

"क्यों तुम इंसान नहीं हो?" मैंने पूछा।

"नहीं, मैं इंसान नहीं बल्कि तुम्हारा अक्स हूं, तुम्हारी शैडो।"

वह बड़े आराम से ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी हो गई "शैडो?" संदेहवश मैंने वो शब्द दोहराया।

"हाँ, मैं तुम्हारा शैडो हूं। ये देखो..." कहते हुए वह शीशे के अंदर समां गई। तब जाकर मुझे समझ आया कि ये फिल्मी सीन चल रहा है।

"इंटरेस्टिंग...," मैं बुदबुदाई। आईने में अपना अक़्स देखकर मैंने सुकून की सांस ली और जाकर ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठ गई।

"बोलो.. क्यों टेंशन ले रही हो?" आईने में मेरे अक़्स ने मुझसे सवाल किया।

"ओ गॉड! तुम रीज़न पूछ रही हो? मेरे सामने वाली आंटी खत्म हो गई हैं। वह भी मेरी तरह कोविड की पेशेंट थीं। और अब...." मैं बोल ही रही थी कि उसने मुझे बीच में टोका, "और अब तुम अपनी मौत का इंतजार कर रही हो। राइट?" उसने बड़ी ही सहजता के साथ वो बात कह दी जिसे सोचकर मेरी घबराहट का कोई ठिकाना नहीं था।

"इंतजार ...इंतज़ार का पता नहीं पर मुझे अपनी मौत नजर आ रही है। आई डोंट वान्ट टू डाय। मैं मरना नहीं चाहती।" मैंने अपने मनका सारा भय उससे कह दिया।

"तो कौन तुमसे मरने के लिए कह रहा है? हाथ पर हाथ धरकर क्यों बैठी हो?" मेरे अक़्स ने मुझसे अगला सवाल किया और मैं फिर भड़क उठी।

"तो क्या करूं मैं? मैं दवाइयां खा रही हूं। काढ़ा पी रही हूं। दिन में तीन बार भाँप ले-लेकर मेरा चेहरा झुलस चुका है। गर्म पानी का गरारा लेकर गर्दन झुलसी हुई लग रही है। तुम ही बताओ अब और क्या करूं?" एक बार में ही मैंने झुंझलाहट की आड़ में अपनी पूरी दिनचर्या उसे सुना दी और जवाब के इंतजार में उसको देखने लगी। लेकिन होंठो पर तिरछी मुस्कान लिए वह खामोश थी।

"अब चुप क्यों हो? बताओ क्या करूं?" मुझे उसकी ख़ामोशी इरिटेट कर रही थी।

"लड़ो..तुम दवाई से लड़ रही हो लेकिन हिम्मत से नहीं।" उसने मुझे समझाया लेकिन मुझे उसकी बात समझ नहीं आई और उसे यह बात समझ आ गई।

"तुमने नीरजा फिल्म देखी है?" उसके सवाल पर मेरी भौंहें तन गईं।

"यहां मौत पर बनी है और इसे फिल्म की पड़ी है।" मन में यही ख्याल चल रहा था जब मैं उसे अचरज भरी निगाहों से घूर रही थी।

"वो तुम ही थी ना, जिसने क्लाइमैक्स के टाइम पर कहा था, ‘अगर मुझे मौका मिले तो मैं भी लोगों की जान बचाने के लिए ऐसे ही लडूंगी।"

उसके सवाल पर मेरी गर्दन हां में हिली। मैं एक पल के लिए उसकी बातों से सहमत भी हो गई, लेकिन अगले ही पल दूसरे सवाल ने मेरे दिमाग में दस्तक दी और मैं उससे पूछ बैठी, "हां मैंने कहा तो था, और मैं लड़ूँगी भी। पर सिचुएशन तो ऐसी आए! कोई लड़ाई हो तब तो लड़ूँ! अभी किस से लड़ूं?"

"आर यू स्टूपिड?" मेरी नकल उतारते हुए मेरे अक़्स मुझे चिढ़ाया तो आदतवश मेरी एक भौंह तन गई। मतलब साफ था, मुझे गंभीर वक़्त में मज़ाक बिल्कुल पसंद नहीं।

"अब और कौन सी सिचुएशन का इंतजार कर रही हो? यह लड़ाई नहीं तो क्या है। यूं अकेले रहकर खुद बीमारी से लड़ना एक लड़ाई ही तो है। जब हर जगह निराशा फैली हो उसमें आशा के दीप जलाना, लड़ाई ही तो है। मौत की आशंकाओं में जिंदगी के फलसफे ढूंढना ,लड़ाई नहीं तो और क्या है?" उसने कहा।

"अगर ये लड़ाई है, तो मैं भी लड़ रही हूं। मैं दवा ले रही हूं। अब और कैसे लड़ूं?" मैंने गहरी सांस लेकर कहा और वह मुझे घूरने लगी मानो आंखों से कह रही हो, "आर यू स्टूपिड!!"

इस बार मैं झेंपकर चुप हो गई।

"वेरी गुड। इस लड़ाई को जीतने के लिए दवा की जरूरत है। लेकिन मन के डर को जीतने के लिए हिम्मत की जरूरत है। तुम दवा से लड़ रही हो लेकिन हिम्मत से नहीं। हिम्मत हार जाओगी तो लड़ाई हार जाओगी। दवा बीमारी का इलाज है, लेकिन अपनी हिम्मत और आत्मविश्वास डर का इलाज है।"

मुझे अब कुछ-कुछ उसकी बातें समझ आ रही थी।

"तुम ऐसे क्यों नहीं सोचती, कोविड बिमारी नहीं लड़ाई है, और तुम पेशेंट नहीं एक योद्धा हो। तुम ये क्यों नहीं सोचती कि तुम अपने जीवन की नीरजा हो। उसने दूसरों की जान बचाने के लिए लड़ाई लड़ी थी और तुम्हें अपनी जान बचाने के लिए लड़ना है। वो दुनिया के आतंक से लड़ी थी और तुम्हें मन के आतंक से लड़ना है। निधी! तुम योद्धा हो विजय तुम्हारा लक्ष्य है।"

मैं एकटक अपने अक़्स को निहार रही थी। उसने इतनी गहरी बात मुझे आसानी से समझा दी। तभी दरवाजे पर खट-खटाहट सुनाई दी।

"कौन..?" मैंने पूछा तो जवाब में नीचे से कागज सरका दिया गया। मैं दरवाज़े के पास जाकर कागज अपने हाथ में ले ली। कागज खोलते ही मेरे होठों पर मुस्कुराहट थिरक उठी। उसपर एक फूल की ड्राइंग बनी थी और बिखरे अक्षरों में लिखा था, "माय बुआ इज़ फाइटर।"

यह मेरे चार वर्षीय भतीजे अंशु की राइटिंग थी। मैं देखते ही पहचान गई । और उस कागज़ को अपने अक़्स को दिखाने के लिए पलटी तो आईने में कोई नहीं था। "मैं शैडो हूं, तुम्हारा," उसकी आवाज कानों में गूंजी। मैं मुस्कुराते हुए सिर झिटक दी। तभी मैंने खुद को महसूस किया, अब मैं आराम से सांस ले पा रही थी। दिल में किसी तरह की चुभन नहीं थी। यकायक मेरे कदम खिड़की की तरफ बढ़ गए। हवा के ठंडे झोंके चेहरे पर पड़े तो मन गुदगुदा उठा।

"ऑक्सीजन प्राण दायिनी वायु है।" अपने स्टूडेंट्स को खूब पढ़ाया आज खुद समझ रही हूं। एग्जाम कॉपी चेक करते वक्त जब एक स्टूडेंट ने ‘प्राणदायिनी’ की स्पेलिंग गलत लिखी थी, मैंने तुरंत गोला लगाकर उसे जीरो नंबर दे दिया था।

"पक्का, उसी बच्चे की बद्दुआएं लगी होंगी," मन में ख्याल आते ही मेरी हंसी छूट गई। कुछ देर पहले कमरे में खांसी की आवाज गूंज रही थी। खौफ भनभना रहा था, क्योंकि कमरे में पेशेंट था। लेकिन अब हंसी की खिलखिलाहट पूरे कमरे में फैली थी। उम्मीद की रोशनी से कमरा चमचमा रहा था, क्योंकि अब कमरे में पेशेंट नहीं एक योद्धा था।
जिसने मरना सीख लिया है,
जीने का अधिकार उसी को-
जो काँटों के पथ पर आया
फूलों का उपहार उसी को॥
( समाप्त )


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