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अपराजिता

Hindi Short Story

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स्वरचित हिन्दी कहानी प्रतियोगिता - Dec, 2022
Result   Details
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अपराजिता
Writer: Vinita mohta, Vidisha, Madhya Pradesh


# अपराजिता
आज रमेश जी को गुजरे 13 दिन हो चुके थे। कुछ दिन पहले तक जहां घर में अच्छी खासी चहल-पहल थी, वह घर वीरान हो चुका था। तेरवी के बाद सभी रिश्तेदार अपने अपने घर चले गए। कहने को तो मालविका जी का पूरा संसार बिखर गया था। मगर उन्होंने कभी किसी के सामने एक आंसू भी नहीं बहाया। भले ही अकेले में सारी रात रोती रही।

दोनों बच्चे अच्छे से जानते थे कि माँ चाहे जितना दिखावा कर ले मगर इस अकेलेपन के आगे वह टूट गई है। वे चाहते थे उनकी माँ ने जो अब तक अपने ऊपर कठोरता का आवरण चढ़ाए हुए हैं उसे अलग करके उन लोगों को गले लगा ले और अपना दुख हल्का करें। मगर उन्होंने इन 12 दिन में भी अपने बच्चों को अपने पास नहीं आने दिया। आगे बढ़कर उन्होंने रमेश जी का पूरा काम खुद की देख−रेख और निगरानी में किया।

एक-एक करके सारे रिश्तेदार अपने घर जा चुके थे, बेटी भी विदा होने के पहले एक बार अपने मां के गले लग कर अपना दुख हल्का करना चाहती थी। मगर उसे भी विदा करते समय मालविका जी ने चाह कर भी उसे अपने गले लगाकर अपना मन हल्का नहीं किया। उन्हें लगा, कहीं यह लोग मुझे कमजोर ना समझ ले। बेटी भी मन में कसक लेकर भाभी से अपनी मां का ख्याल रखने का वादा लेकर अपने ससुराल चली गई।

रमेश जी की क्रिया कर्म में शामिल होने बेटा और बहू दिल्ली से गांव आए थे। मगर अब जाने का समय आ गया था। बेटा और बहू वापस जाने के लिए अपना सामान पैक कर रहे थे। एक तरफ रोहित सामान्य तरीके से अपने जाने की तैयारी कर रहा था, वही दूसरी तरफ सामान पैक करते वक्त बहु सिम्मी के हाथ कंप रहे थे। उसे अपनी ननद को दिया वचन याद आ रहा था। तभी मालवीका वहां पहुंच गई और उन दोनों की बातें सुन वह दरवाजे पर ही खड़ी रह गई।

बहु सिम्मी अपने पति रोहित को कह रही थी, "जब तक पापा जी थे तब तक तो ठीक था, मगर अब हम मम्मी जी को यहां पर अकेला नहीं छोड़ सकते है। आप कहे तो मैं उनसे बात कर लेती हूं, हम उन्हें हमारे साथ दिल्ली ले चलेंगे। यहां उनका ध्यान रखने वाला कौन है? जब बेटे-बहू है तो मां अकेली क्यों रहे?"

सिम्मी की बात सुनकर रोहित ने एक गहरी सांस ली और अपनी मां के बारे में कुछ पल सोचने के बाद बोला, "तुम ठीक कह रही हो सिम्मी, मगर मम्मी शुरू से अकेली रही है। उन्हें आदत है अपना हर काम खुद करने की। उन्हें अपने कम मे किसी की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं है। देखा ना पापा के पुरे काम मे भी उन्होंने हमारी मदद नही ली। वे किसी भी हाल मे वहां पर खुश नहीं रह पाएंगी। हम लोग यहां उनके पास आते-जाते उनसे मिलते रहेंगे।"

रोहित की बातें सुनकर मालविका जी उदास हो गई। एक बच्चे ही तो होते हैं जिनके आगे मां अपने दिल की बात कह सकती हैं, कमजोर पड़ सकती है। बेटी को इस तरह बुझे मन से विदा करने के बाद मालवीका जी सारी रात सो नहीं पाती। उन्होंने सोच लिया था बेटे को इस तरह उदास विदा नहीं करेंगी। उन्होंने अपने बेटे के साथ जाने का मन बना लिया था। वे उसी के बारे में बात करने उसके कमरे में जा रही थी। मगर बेटे की राय सुन वह चुपचाप वहां से चली आई।

अपने कमरे में आने के बाद मालविका जी को खुद के फैसले पर पछतावा होने लगा। पहले तो वो सोचने लगी, आखिर रोहित ऐसे कैसे बोल सकता है! फिर कुछ देर ठंडे मन से खुद के बारे में सोचने के बाद खुद से ही बोली, सच ही तो कह रहा था वह, मैंने कब किसी का इंटरफेयर अपने काम में पसंद किया है। पता नहीं क्यों बचपन से ही ऐसी थी। 12 साल की छोटी सी उम्र में माता-पिता का साया हम भाई-बहनों के ऊपर से उठ गया था। घर में सबसे बड़ी होने के नाते पिताजी की खेती इतनी छोटी उम्र में ही संभाल ली थी। घर के और बाहर के काम ऐसे संभालती थी कि कोई विश्वास ही नहीं करता था कि यह काम 12 वर्ष की लड़की ने किया है। अपनी छाया में, अपने भाई-बहनों की दूसरी मां बन चुकी थी। एक-एक कर सभी भाई-बहनों की शादी करा दी। खुद की शादी के बारे में सोचा भी नहीं। मगर रिश्तेदारों और नातेदारों ने ख़ुद मेरा रिश्ता रोहित के पापा से करा दिया। रोहित के पापा भी शुरू से बिना माता-पिता के रहे थे। हम दोनों ही जैसे एक दूसरे की परछाई थे। हम दोनों का व्यवहार एक जैसा था। हम दोनों ही एक दूसरे के काम में दखलंदाजी नहीं करते। हर काम खुद से करते-करते नारी-स्वाभाविक एक भी गुण मुझमें विकसित ना हो पाया, या यूं कहूं कि, मैंने उसे पनपने ही नहीं दिया। कभी अपनी भावनाओं को किसी के साथ बांटा ही नहीं। एक अपरजिता की जिंदगी जी है मैने। बेटी को भी इस तरह पाला कि वह हर काम खुद से करने में सक्षम हे। कभी भी बेटे या बेटी को मैंने अपनी कोई कमजोरी जाहिर ना होने दी। अपने आसपास कठोरता का आवरण ओढ़ लिया....मगर अब जीवन के अंतिम क्षणों में जब बहू मेरे उस कठोरता के आवरण को तोड़ना चाह रही है तो क्यों मेरे भीतर एक टीस है, क्यों नहीं मैं यह आवरण तोड़ फिर से एक नई जिंदगी जी लू। नहीं अब और नहीं, मुझे भी सहारे की जरूरत है। हां बेटा, मुझे तुम्हारा सहारा चाहिए। यही सोच उन्होंने अपना सामान पैक कर लिया। जब सुबह बेटे बहू उनसे विदा मांगने लगे तो वह बोली, "विदा क्यों मांग रहे हो? मैं भी तुम्हारे साथ चल रही हूं..."

रोहित का मुंह खुला-का खुला रह गया, "क्या सच में तुम हमारे साथ चलोगी?"

"हां बेटा मुझे अब तेरी जरूरत है। तू देगा ना मुझे सहारा?" कहकर वह रोहित के गले लग एक मासूम बच्चे की तरह रोने लग गई।
( समाप्त )


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