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Hindi Short Story

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स्वरचित हिन्दी कहानी प्रतियोगिता - Dec, 2022
Result   Details
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कमाई
Writer - गौरव शर्मा, पिता- रामगोपाल शर्मा, लाड़पुरा बाजार, कोटा, राजस्थान


# कमाई
दिनभर की थकान के बाद रामप्रसाद की आँख लगी ही थी कि पुलिस की गाड़ी आकर उसकी दुकान के आगे रूकी। पुलिस वाले ने धमकाते हुए उसे जगाया। उठ-उठ यह क्या सोने की जगह हैं, पता नहीं तुझे कपर्यु लगा हैं।

अधकच्ची नींद में पुलिस की आवाज सुनकर वह हड़बड़ाकर उठ गया, "क्या हुआ साहब? क्या हुआ?"

"हुआ कुछ नहीं। चल अन्दर जाकर सो। तुझे पता नहीं कोरोना के कारण रात्रिकालीन कफ्र्यु का सरकारी आदेश हैं! तू अभी यहाँ नहीं सो सकता। अंदर चला जा फटाफट, वरना..."

"जाता हूँ साहब... जाता हूँ । माफ कर दो।"

उसे धमकाकर पुलिस की गाड़ी आगे बढ़ गई। लेकिन अब वो क्या करें, क्या नहीं? घर के नाम पर केवल एक किराये की दुकान ही तो थी उसके पास। जिसमें उसकी पत्नी और चार बेटियाँ सोई हुई थी। इससे पहले वाले लॉकडाउन में उसकी सबसे बड़ी बेटी, जिसकी उसने अभी एक साल पहले ही शादी की थी, अपने ससुराल में थी, इसलिए उसे कोई दिक्कत नहीं आई। परन्तु अभी कुछ दिनों से वो यहीं आई हुई थी।

एक बार रामप्रसाद उठा कि उन्हें जगाऊँ, फिर ख्याल आया, क्या होगा उनकी नींद खराब करने से? अन्दर भी कौन सी जगह हैं उसके सोने के लिए। वह वहीं दुकान के बाहर सड़क पर लगे अपने लकड़ी के तख्ते पर बैठ गया और सोचने लगा। जिन्दगी बीत गई मेरी। पर दिन-रात इतनी मेहनत के बावजूद वह अपने और अपने परिवार के लिए एक दो कमरों का छोटा-सा घर भी नहीं बनवा सका, जहाँ वह अपने परिवार के साथ चैन से सो तो सके। रामू धोबी के नाम से उसका आसपास नाम तो बहुत था, पर कमाई 'ना' के बराबर। चार बेटियाँ, घरवाली और वो खुद। कुल जमा छह लोगों का पेट ही मुश्किल से भरता था। आशियानां बनता भी तो कैसे? जैसे-जैसे बच्चियाँ बड़ी होने लगी दुकान छोटी पड़ने लगी और दुकान के बाहर बिछा ये प्रेस करने का तख्ता ही उसका बिछोना हो गया। सर्दी-गर्मी तो निकल ही जाती पर असली परीक्षा बारिश का मौसम लेता था। रात-रात भर यहीं तिरपाल में बैठकर ही गुजारनी पड़ती।

पर समय हैं निकल ही जाता, लेकिन इस महामारी ने तो ये तख्ता भी उससे छीन सा ही लिया। उसे खुद पर गुस्सा और रहम, दोनों आने लगे कि वह जिन्दगी में कुछ ना कर सका। उसकी आँखों के कोर भीग गए खुद की बेबसी पर। तभी ऊपर से आवाज आई, "काका ऊपर आकर सो जाओ..."

रामप्रसाद ने ऊपर सर उठा कर देखा तो बालकनी में दुकान मालिक का बेटा खड़ा था। उसने फिर से आवाज लगाई, "काका आ जाओ ना... मैंने आपके लिए बिस्तर यहीं लगा दिया हैं। अभी जब पुलिस वाले आए थे। तब मैं जाग ही रहा था।"

रामप्रसाद ऊपर देखता रहा बिना कुछ बोले।

"काका क्या हुआ? क्या सोच रहे हो? यह आपका भी घर हैं। अब जब तक सबकुछ पहले जैसे सामान्य नहीं हो जाता। आप यहीं ऊपर ही सोया करो।"

रामप्रसाद ने अपनी आँखें पोंछतें हुए ऊपर की सीढ़ियों की तरफ रूख किया। लेकिन आंसू अब तक गालों को भीगो रहे थे। पर अब यह बेबसी के नहीं, बल्कि सुकून के आंसू थे कि उसने जिन्दगी में धन ना सही लेकिन कुछ तो कमाया ही हैं।
( समाप्त )


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