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करुणा

Hindi Short Story

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स्वरचित हिन्दी कहानी प्रतियोगिता - Dec, 2022
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करुणा
लेखिका: सुनीता सिंह,जानकीपुरम विस्तार, लखनऊ, उत्तर प्रदेश


# करुणा

लेखिका: सुनीता सिंह,जानकीपुरम विस्तार, लखनऊ, उत्तर प्रदेश

जयदीप एक साधारण किसान परिवार से था। उसके लिए जीवन कभी भी आसान नहीं रहा। लेकिन दैनिक जीवन की बाधाओं और मुश्किलों के बावजूद उसे अपने माता-पिता से उच्च नैतिक मूल्य और संस्कार प्राप्त हुए थे। जयदीप के व्यक्तित्व के प्रमुख गुणों में से दयालुता और करुणा के गुण इतनी अधिक मात्रा में थे कि कभी-कभी उसे अपने इन्हीं गुणों के कारण दूसरों द्वारा मूर्ख भी बना दिया जाता था। अपनी दयालुता और करुणा का लाभ दूसरों द्वारा उठाने पर वह अक्सर नाराज हो जाया करता था। लेकिन जब भी वह नाराज होता था, उसकी माँ अक्सर यह गीत गाकर उसे सांत्वना दिया करती थी-
"जो तुमको काँटे बोए, उसको बोओ तुम फूल।
उसके काँटे उसे मिलेंगे, तुम्हें मिलेंगे फूल।।"

अपनी अकादमिक शिक्षा पूरी करने के बाद जयदीप ने नौकरी की तलाश प्रारम्भ की। फिर से जीवन ने उसे कठिन परिदृश्य दिखाया। एक-के बाद एक, वह नौकरी के लिए साक्षात्कार दे रहा था, किन्तु कहीं चयन नहीं हो रहा था। एक बार, अपने गाँव से सुदूर एक शहर में इस तरह का साक्षात्कार देने के बाद वह रात की रेलगाड़ी से अपने गांव लौट रहा था। वहाँ रेलगाड़ी में दो लड़कों से उसकी मुलाकात हुई। उन्होंने कहा कि वे भी नौकरी के लिए साक्षात्कार देकर लौट रहे थे। जल्द ही जयदीप की इन लड़कों के साथ अच्छी दोस्ती हो गयी। उन्होंने अपने भोजन और खाद्य पदार्थों को भी जयदीप के साथ साझा किया। चूंकि जयदीप बहुत थका हुआ था, वह बातचीत करते समय भी झपकी ले रहा था, अतः जल्दी ही वह सो गया। जब वह उठा तो उसने उन लड़कों को कहीं नहीं देखा। उसका सूटकेस भी नहीं था। उसका सिर भी दर्द से फटा जा रहा था। तब उसे उन मीठा बोलने वाले लड़कों का खेल समझ में आया। उसका सूटकेस खो गया था, यह उसके लिए बहुत बड़े झटके जैसा था, क्योंकि उस सूटकेस में उसके सभी शैक्षणिक अंकपत्र और प्रमाण-पत्र मूल रूप से रखे हुए थे। साक्षात्कार के पूर्व सभी अभिलेखों की मूल रूप में जाँच की जाती थी, अतः उन्हें मूल रूप में ले जाना होता था। अब सवालों की एक श्रृंखला उसके मष्तिष्क से आँधी बनकर गुजर रही थी ... 'अब मैं क्या करूंगा... मैं अपने सपनों को कैसे पूरा करूंगा ... और मेरे माता-पिता के सपने और उमीदों का क्या होगा?'

वह जहाँ भी ढूँढ सकता था, ढूँढने के बाद भारी मन और अवसादपूर्ण मनोदशा के साथ वापस अपने गाँव लौट आया।

कुछ दिन बीत गए। एक दिन वह खेतों से लौटा और अपने घर के बाहर नीम के पेड़ की छाँव में रखी खाट पर लेट गया।

"जय भैया!" जयदीप ने मुड़कर उस व्यक्ति को देखा जिसने उसे पुकारा। वह दीपू था, उसके दोस्त सूरज का छोटा भाई। उसके साथ एक अन्य व्यक्ति भी था।

"क्या हुआ दीपू?" जयदीप ने पूछा।

"जय भैया! यह आदमी आपसे मिलना चाहता था। वह आपके पते के बारे में पूछ रहा था, इसलिए मैं उसे आपके पास ले आया।"

जयदीप उस आदमी को देखा और उसके बारे में पूछा। उस व्यक्ति ने अपना परिचय महेश राठी के रूप में दिया जो धारीपुर शहर से आया था।

''क्या तुम जयदीप हो?" महेश ने पूछा।

"हाँ.."

"क्या तुमने अपना कुछ कीमती सामान खो दिया है?"

"हाँ...कुछ दिन पहले मेरा सूटकेस एक ट्रेन में खो गया था और उस सूटकेस में मेरे सभी शैक्षणिक दस्तावेजों के मूल रूप थे," जयदीप ने एक गहरी आह के साथ उत्तर दिया और कुछ सेकंड के मौन के बाद उसने फिर विस्मय से पूछा, "लेकिन आप क्यों पूछ रहे हैं?"

महेश ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, ''कुछ दिन पहले मैं एक गली से गुजर रहा था, जब मैंने देखा कि रास्ते के किनारे एक सूटकेस फेंका हुआ था। इसे बीच में शायद किसी ब्लेड से काटा गया था। कुछ कागज भी इधर-उधर बिखरे पड़े थे। मैं रुक गया और फेंके गए क्षतिग्रस्त सूटकेस के पास गया। मैंने पाया कि वे मूल शैक्षणिक दस्तावेज थे। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि सूटकेस चोरी हो गया होगा और बीच में से काटकर कुछ बहुमूल्य पाने की आशा में खोला गया होगा। जब चोर ने पाया होगा कि दस्तावेज उसके लिए किसी काम के नहीं हैं, तो उसने उसे रास्ते के एक तरफ फेंक दिया होगा। मैं अनुमान लगा सकता था कि ये दस्तावेज जिसके भी हैं, उसके लिए कितने मूल्यवान होंगें। इसलिए मैंने सभी कागजात और दस्तावेज एकत्र किए। आपका पता भी उन कागजों में था। मैंने स्वयं आने का निर्णय लिया ताकि इस बहुमूल्य संपत्ति को उसके मालिक को सौंप सकूं।"

जयदीप अभिभूत था। उसने इस अप्रत्याशित सहायता के लिए महेश राठी और भगवान दोनों को धन्यवाद दिया। कुछ समय के बाद जयदीप ने सरकारी नौकरी पा ली। एक बार, जयदीप सरकारी सेवा में शामिल होने के तीन महीने बाद एक प्रशिक्षण संस्थान में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहा था। वह एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से था। परिवार में सबसे बड़ी संतान होने के साथ-साथ अपने परिवार से भी एकमात्र उसके ही सरकारी नौकरी में होने के कारण परिवार के सदस्यों को उससे बड़ी अपेक्षाएँ थीं। वह अपने अपर्याप्त वेतन से पैसा बहुत सोच-समझ कर व्यय करता था।

एक बार वह लंच ब्रेक में पास के बाजार में कुछ खाने के लिए जा रहा था। रास्ते में एक भिखारी उसके पास आया और बोला कि वह पिछले तीन दिनों से भूखा था। उसकी आँखों में आँसू थे। उसने बड़े करुण भाव से अपना पेट सहलाते हुए भोजन खरीदने के लिए कुछ पैसे मांगे। भिखारी की दयनीय हालत को देखकर जयदीप का करुण ह्रदय द्रवित हो आया। उसके पास उस समय केवल इतना पैसा था जो केवल एक व्यक्ति के खाने के लिए ही पर्याप्त था। उसे भी बहुत भूख लगीं थी लेकिन भिखारी के तीन दिन से कुछ न खाने की बात सुनकर, जयदीप ने अपने पास जितने भी पैसे थे, वह सब उस भिखारी को दे दिए। और वहाँ से चला गया। उस समय वह एक कप चाय पीने के लायक भी पैसे नहीं बचे थे, लेकिन उसका मन इस बात से संतुष्ट था कि उसने किसी जरूरतमंद की मदद की। जयदीप को एक जगह कुछ कार्य से जाना था। कार्य पूरा करने के बाद अपने प्रशिक्षण स्थल पर वापस जाते समय उसने एक जगह सड़क के किनारे फिर से उसी भिखारी को देखा, लेकिन इस बार वह नशे में धुत्त था और शराब की दुकान पर हाथ में शराब की बोतल लेकर खड़ा था। अब पूरा परिदृश्य उसकी समझ में आ चुका था कि भिखारी ने पूरा पैसा शराब पीने में खर्च कर दिया था और तीन दिन की भूख केवल दिखावा थी।

जयदीप को स्वयं पर बड़ा क्रोध आ रहा था। बार - बार यही विचार उसके मन में आ रहा था कि क्या मेरी करुणा मूर्खता का प्रतीक थी? जब कोई जरूरतमंद उसके पास आता था, वह उनके प्रति अपनी दया और करुणा को रोक नहीं पाता था, क्योंकि यह गुण बचपन से ही उसके स्वभाव में निहित था। कुछ वर्षों के बाद, फिर से एक ऐसी घटना घटी जिसने सर्वशक्तिमान पर उसके विश्वास को मजबूत किया। मेट्रो में सफर करते समय जयदीप का पर्स जेब से चोरी हो गया। उस दिन भी कार्यालय का पहचान पत्र, पैन कार्ड, आधार कार्ड, डेबिट कार्ड आदि मूल रूप में पर्स में थे जिन्हे कुछ आधिकारिक काम के लिए कार्यालय ले जाना था। वह बहुत परेशान था। जयदीप ने अपने आप से कहा, "चमत्कार हमेशा नहीं होते। अब इन सभी के डुप्लीकेट बनवाने में बहुत समय और प्रयास लगेगा और वह भी तब, जब मेरे पास खोए दस्तावेजों की कोई फोटोकॉपी भी नहीं है।"

अगले दिन शाम को एक व्यक्ति जयदीप के घर गया। उसने दरवाजे की डोरबेल बजाई। नौकरानी बाहर आई और पूछा कि वह कौन है-

"क्या यह श्री जयदीप का घर है?" उस आदमी ने पूछा।

"हाँ!! लेकिन वह इस समय कार्यालय में हैं और आप कौन हैं?"

''यह लो...'' यह कहते हुए वह तेजी से नौकरानी को पर्स सौंप कर बाइक की पिछली सीट पर बैठ गया। बाइक पहले से ही स्टार्ट की स्थिति में थी और एक अन्य व्यक्ति ड्राइविंग सीट पर बैठा था। वे दोनों बहुत तेजी से वहाँ से भाग गए। यह श्री जयदीप का वही खोया हुआ पर्स था। कार्ड पर जयदीप का मोबाइल नंबर और पता था जिसके आधार पर उन लोगों ने पर्स घर पर पहुँचाया।

समय बीतने के साथ उसकी स्थिति में सुधार हुआ और उसके बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपने-अपने करियर में सफल हो गए। समय के साथ वह समझ चुका था कि करुणा मूर्खता का पर्याय नहीं है। सर्वशक्तिमान ने बदले में उसे अपनी अनुकंपा से पुरस्कृत किया था।
( समाप्त)


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