Home   |   About   |   Terms   |   Contact    
A platform for writers

गिला

Hindi Short Story

------ Notice Board ----
स्वरचित हिन्दी कहानी प्रतियोगिता - Dec, 2022
Result   Details
--------------------------


All Hindi Stories    46    47    48    49    ( 50 )     51   

गिला
Writer: Manju Bal Krishna Panda, Harchandpur, Alwar, Rajasthan


## गिला

Writer: Manju Bal Krishna Panda, Harchandpur, Alwar, Rajasthan

#
हमेशा बिजी क्यों रहती हो? वो भी इतनी बिजी? कब तक तुम्हारा इंतज़ार करूँ? कब बेफिक्र हो कर बैठोगी मेरे पास? कब ऐसा होगा कि घड़ी के होने को भूलकर हम-तुम बात कर सकेंगे? किसी काम को पूरा करने की फ़िक्र नहीं होगी? कल के लिए तैयारी करनी है, इसकी चिंता छोड़ कर बस तुम, मैं और हम। शायद तुम्हारे प्यार की यही प्यास मुझे तब भी थी, जब मैंने होश नहीं संभाला था। तुम हँसकर कहती हो कि मुझे तुम्हारा आराम करना सुहाता न था। सच? तब तो मैं बहुत बुरी थी।

"अरे, नहीं। मैं जब थक कर ज़रा कमर सीधी करने के लिए लेटती, तो तुम चाहती थी कि मैं तुमसे बात करूँ। अपनी नन्ही उँगलियाँ मेरी उनींदी आँखों में डालकर कहती थी, 'आँखें खोलकर सोओ। मेरी तरफ मुँह करके सोओ।'"

आज समझ आया कि तुम्हारी बंद आँखें देखकर मुझे लगता होगा कि तुम न जाने किस दुनिया में चली गयी। तुम्हारी उस दुनिया में मैं नहीं हूँ। मुझे अकेला महसूस होता होगा, शायद डर लगता हो – कहीं तुम वापिस न आयी तो? इसीलिए अपनी उँगलियों से तुम्हारी आँखें खोलने की कोशिश करती थी। तुम्हें एहसास दिलाती थी की इस तरफ, अपनी नन्ही सी दुनिया में मैं हूँ – मुझे याद रखना, भूलना नहीं कि वापस आना है; मैं इंतज़ार कर रही हूँ।

#
ऑफिस जाती थी तुम। अपना काम बहुत शिद्दत और ईमानदारी से करती थी। लोग तुम्हें इसके लिए सराहते भी होंगे, पर मुझे क्या? मेरी पैनी नज़र तो सिर्फ तुम्हारी छुट्टी पर रहती थी। हर हफ्ते उस एक छुट्टी का इंतज़ार रहता जब तुम सारा दिन घर हो। सारा दिन!! बस मन करता की तुम मुझसे चिपक जाओ, सब छोड़ दो। ऐसा क्या ज़रूरी है, जो रुक नहीं सकता, टल नहीं सकता? तुम्हारा एजेंडा पहले से ही सेट होता। कितने काम निपटाने होते, कितना कुछ ओर्गनाइज करना होता, कितनी प्लानिंग करनी होती। छुट्टी को तुम और दिनों से भी ज़्यादा बिजी रहती थी और मैं और दिनों से ज़्यादा परेशान। बिल्लौटे की तरह तुम्हारे पीछे चक्कर काटती रहती, गुस्सा होती, चीज़ें फेकती पर तुम टस से मस न होती।

कभी - कभी मैं चाहा करती थी की तुम पास रहो, चाहे पास न बैठो। बस तुम्हारा घर होना ही काफी होता। तुम्हारे होने भर से ही तसल्ली हो जाती। एक बार तुम्हें ड्यूटी जाना था। मैं मना करती रही, मनुहार करती रही, गुस्सा भी हुई और जब सारे हथकंडे फेल हो गए तो मैंने भी कह दिया, "ठीक है जाओ, मैं अकेली रह लूंगी।" तुम बहुत बुरी हो। तुम्हें मेरी परवाह ही नहीं है। तुमने डेढ़ घंटा बस-स्टॉप पर इंतज़ार किया। बस नहीं आयी। तुम वापिस घर आ गयी। कितनी शिद्दत से मैंने चाहा था की तुम न जाओ ! "पैदल चली जाती। ऑटो रिक्षा कर लेती" - ताने दिए थे मैंने तुम्हें । तुम हँस दी थी। तुमने बस यही कहा था, "ऐसी बुरी नज़र लगायी है की बस ही नहीं आयी।"

क्या तुम जान पायी थी कि उस गुस्से में प्यार छिपा था? उन तानों में दर्द था? क्या तुम उस प्यार को महसूस कर पायी थी? मुझे विश्वास है कि किया होगा। नौकरी और ड्यूटी की अहमियत तब मैं न जानती थी, आज जानती हूँ, पर फिर भी मुझे आज भी लगता है की मैं ही सही थी।

"अच्छा हुआ बस नहीं आयी !" मैंने तुम्हें चिढ़ाया था।

"चुड़ैल! काली ज़ुबान है तेरी," कहके तुम चाय बनाने रसोई में चली गयी थी।

#
तुम्हारा घर लौटने के टाइम से पहले ही भाई और में उस खिड़की पर लटक जाते जहाँ से वह सड़क दिखाई देती थी, जहाँ हम अपने प्यार का रेड कारपेट तुम्हारे लिए रोज़ बिछाया करते थे। कभी- कभी तुम ज़रा लेट हो जाती, तो हम घर के बाहर की रेलिंग पर आधे लटक कर, जहाँ तक देख पाएं, देख कर तुम्हें आती -जाती औरतों में ढूँढ़ते। कई बार तुम्हें देखते ही खिड़की से चिल्लाते, कभी सीढ़ियां फांद कर नीचे पहुँच जाते। वो शाम का कुछ वक़्त, जब तुम और हम चाय पकौड़े खाते, गप- शप करते, उसका इंतज़ार रोज़ रहता। वक़्त के साथ, बड़े होने के साथ, न उसका तिल्सिम टूटा था और न तुम्हारी हफ्ते की छुट्टी का।

तुम अपने ऑफिस के किस्से और परेशानियां शेयर करती और हम अपने स्कूल- कॉलेज के किस्से। तुम जानती हो माँ, जब से तुमने मेरा हाथ छोड़ा, तब से मैंने शाम की चाय के साथ पकोड़े खाने छोड़ दिए, गप- शप भी। तब शाम की चाय एक सेलिब्रेशन हुआ करती थी, अब सिर्फ दो बिस्कुट से ही काम चल जाता है।

#
"कोई लड़का पसंद है तुझे?"

" नहीं, सभी दोस्त हैं ; शादी करने का सोचूँ ऐसा तो कोई नहीं।"

"लड़का अच्छा हुआ तो बात बढ़ाई जा सकती है।"

"नहीं माँ, ऐसा तो कोई नहीं है। होता तो मैं बता देती। लड़का हमारे परिवार के मुताबिक तो हो, तभी तो बात आगे बढ़ेगी।"

" हाँ, ये तो है..."

"पंडित तो कह रहा था की तू उसे जानती होगी। किसी ने भी शादी का ज़िक्र नहीं किया कभी? अब तो सभी शादी लायक उम्र के हैं।"

"एक है तो सही जो मुझसे शादी करना चाहता है, पर उसके पास जॉब नहीं है। वह भी सिर्फ दोस्त है।"

"देख ने में कैसा है?"

"कुछ ख़ास नहीं ; पतला -दुबला सा है। जात भी दूसरी है और स्टेट भी, तुम लोग देखते ही रिजेक्ट कर दोगे।"

"कोई अच्छी बात तो होगी?"

"अच्छा है, पढ़ा -लिखा है, पर उससे शादी नहीं हो सकती। वो मुझे देखते ही शादी - शादी करता है।" और हम दोनों हँस दी थी।

पंडित ने ठीक ही कहा था की मेरी शादी अचानक होगी, किसी जान -पहचान के लड़के से होगी और जिससे सोचा नहीं, उसीसे होगी। मैं आज तक नहीं समझ पायी तुम्हारी नाराज़गी की वजह। तुम मेरा चरित्र जानती थी और स्वभाव भी। कभी कोई लड़का था ही नहीं। अपने बच्चे के बारे में माँ -बाप कैसे ग़लतफ़हमी पालते हैं? वो तो उसकी रग- रग पहचानते हैं। न तुम मुझे पहचान पाए, न मैं तुम्हें - कैसी विडम्बना थी ये!!

#
तुमने मेरी शादी का बहुत बेसब्री से इंतज़ार किया क्योंकि तुम्हें अपने बेटे के सेहरे की जल्दी थी और मैं उसके रास्ते का कांटा बन गयी थी। फिर वही हो गया, जिसकी मुझे आशंका नहीं थी। हालात बदले, दोस्ती प्यार में बदली और आखिर जब मैंने अपने मन की कही तो तुम रूठ गयी जबकि सबसे पहले उस लड़के के बारे में मैंने तुम्हें ही तो बताया था, जब तुमने मुझसे पूछा था, "कोई लड़का पसंद है तुझे?" मुझे तुमसेया पापा से कुछ छिपाने की ज़रुरत ही महसूस नहीं हुई। प्यार करना शर्म की बात ही नहीं थी कि छिपाती।

तुम ऐसे रूठी कि मुझे सालों लग गए तुम्हें मनाने में। तुम्हारे गुस्से के शोले शायद वक़्त के साथ ठन्डे हो ही जाते पर वे धड़कते -भड़कते ही रहे। उनमें झूठ और मक्कारी का घी जो डलता रहा। इस इंतज़ार में की तुम कभी-न कभी समझ जाओगी, सच का सामना कर लोगी, प्यार फरेब से जीत जायेगा, कई साल निकल गए। 12 साल कम नहीं होते किसीको भी अपने प्यार व नीयत का विश्वास दिलाने के लिए, और माँ के लिए तो बिलकुल नहीं। लोगों से सुना था की झूठ के पाँव नहीं होते। मुझे गिला है कि हमारे रिश्ते के पाँव भी नहीं थे, सो वह चरमरा के गिर गया। तुम बड़ी थी, उसे संभाल सकती थी। तुम चकोर की तरह बेटे को ही देखती रही।

किससे गिला करती की तुमने मुँह मोड़ लिया? अपनी शादी के 13 वर्ष बाद तक मैं तुम-सबका मन जीतने की कोशिश करती रही पर मुझे अवहेलना, अवसाद और अनादर ही मिले। हारकर मेरे स्वाभिमान ने बगावत कर दी। मैंने उम्मीद छोड़ दी, तुमने मुझे छोड़ दिया। मैं जान गयी थी कि तुम्हारे मन में और ज़िन्दगी में मेरे लिए कोई जगह नहीं। छुट्टी, चाय, पकोड़े, खिड़की, इंतज़ार- सब ख़त्म हो गया। मैंने शिफ्ट करने का फैसला किया। जब अपनी जड़ों को नयी जगह में रोपा तो पुरानी मिटटी भी झाड़ दी और पुराना गमला भी तोड़ दिया। नयी मिटटी में, नए सिरे से जड़ें बिठाई।

वक़्त के साथ पौधा पनपा, खिला, लहलहाया। सोचती रही की जब तुम मिस करोगी तो बुला लोगी, जब ज़रुरत होगी तो ढूँढ लोगी। 12 साल बीत गए। न तुमने मिस किया, न तुम्हें मेरी ज़रुरत पड़ी। मैं जानती थी की तुम सक्षम हो, तुम्हारे ज़िद पक्की है, पर मैं यह भी जानती थी कि तुम्हारे और मेरे बीच हमेशा की तरह तुम्हारे बेटे का साया खड़ा था। जब उसने 'परिवार की इज़्ज़त पर कलंक', 'झूठी', 'लालची, 'मतलबी' जैसे गुण मेरे करैक्टर सर्टिफिकेट में लिखे तो तुमने अपनी मोहर लगाने और हस्ताक्षर करने में वक़्त नहीं लगाया।

तुम्हारा बेटा। तुम धरती और तुम्हारा बेटा सूरज: उसके इर्द -गिर्द ही घूमती रही तुम। वह सूरज और तुम सूरजमुखी: उसी को देखकर जीती और खिलती रही तुम। वह भगवान और तुम भक्त; आँख -कान मूँद कर उसकी हर बात को सच मानती रही तुम।

हाँ, तुम्हारा बेटा। उसे इतना प्यार दिया कि मुझे देना भूल गयी ; बस वही दिखता, उसीकी तकलीफें दिखती, उसीके दर्द पर तुम मरहम लगाती। न मैं तुम्हें सुनाई देती, न दिखाई देती। मैं भूत हो गयी थी या मर गयी थी; मैं भी नहीं जानती थी। मेरा अस्तित्व भुलाकर, मेरी जगह तुम अपने बेटे को फिट करने की कोशिश में लगी रही और बेटा भी उसी जगह को पाने के मोहपाश में बंधा रहा। इंच -इंच मैं हाशिये में सरकती गयी। हर किसीकी अपनी ख़ास जगह होती है, तुम सब यह कैसे भूल गए? तुम्हारी शिकायत तुम्हीं से करती? जब तुमने खुद ही अपने दिल का दरवाज़ा बंद कर लिया था, तो मैं कितना भी खटखटाती, वह कैसे खुलता? कौन खोलता? चाबी तो तुम्हारे ही पास थी। मुझे गिला है कि तुम भूल गयी कि तुम मेरी भी माँ थी।

मेरे और पापा के बीच के प्यार की डोर में गाँठ भी तुम्हीं लोगों ने डाली। जब वो भी तुम्हारी भाषा बोलने लगे, तुम्हारे लहज़े में बात करने लगे तो दूर जाने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं बचा। जब सारी गलती का बोझ मेरे ही कन्धों पर था, तो उसे ढोना भी मुझे बिना शिकायत के ही था।

#
बहुत लम्बे वक़्त के बाद, खबर मिली की पापा नहीं रहे। उनके गुजरने और खबर मिलने के बीच 5 साल का अंतराल था। तुम कैसी हो? तुम्हें किसी चीज़ की ज़रुरत तो नहीं? तुम्हारी बहु -बेटा तुम्हारा ख्याल रखते तो हैं न? कैसे रह रही हो पापा के बिना? उनकी अनुपस्तिथि में तुम कमज़ोर तो नहीं पड़गयी? सोचा अपना दायित्व निभा देती हूँ। मिलना नहीं चाहोगी या ज़रुरत नहीं होगी तो वापिस चली आऊंगी; यही सोचकर तुमसे मिलने आयी थी।

आज भी वही एक शख्स तुम्हारे और मेरे बीच खड़ा था। उसकी कई शर्तें थी, उसीके कई डर थे, उसके ही कई सवाल थे। बहुत देर लगी तुम्हें दिल और दिमाग के दरवाज़े खोलने में। वह तुम्हें डराता रहा, "पक्का कुछ मांगने आयी है! इसके इरादे ठीक नहीं लगते! कहाँ थी इतने साल? क्यों आयी है? किसने बुलाया है इसे? क्या लेने आयी है?" इधर तुम झिझक, डर और असमंजस की धुंध में फसी रही और उधर मैं, एक अँधेरी सुरंग में उम्मीद और प्यार की किरण ढूंढ़ती रही। तुम मुझपर अपना विश्वास सिर्फ एक बार ज़ाहिर करती तो पाती कि मैं तुम्हारा हौसला हूँ, तुम्हारी हिम्मत हूँ, तुम्हारा आत्मसम्मान हूँ। मुझे गिला है की उसका लिखा हुआ वह करैक्टर सर्टिफिकेट तुम्हें भटकाता रहा। सिर्फ एक बार अपने बेटे को अनसुना करके मेरी आवाज़ भी सुन लेती...

#
13 साल मेरी शादी के बाद और फिर 12 साल अज्ञातवास में हमने अपनी ज़िन्दगी के 25 साल एक दूसरे के बिना नाराज़गी में और दूर रहकर काटे। इस सज़ा की ज़रुरत किसे थी? इससे किसे क्या मिला? किसकी जीत हुई? जब एक दूसरे के साथ थे, परेशान थे। जब एक दूसरे के बिना थे, दुखी थे। तुम सब कुछ बेटे को देकर भी खाली रही, तरसती रही। जब तक तुम्हें बेटे का चरित्र समझ आया, तुम्हारे हाथों से वक़्त निकल गया था, कमाई भी और स्वाभिमान भी। शुरुआत में तुम्हें भी वही डर थे, तुम्हारे भी वही सवाल थे; अगर मुझे ज़मीन जायदाद का लालच होता, तो में तुम सब पर नज़र रखती और सही समय पर आती, पापा के जाने के 5 साल बाद नहीं!

#
किसी बात पर हक़ जमाते हुए तुमने मुझसे कहा था, "मैं माँ हूँ तेरी।" मैंने भी हँसकर तुम्हें जवाब दिया था, "तुम तो सिर्फ अपने बेटे की माँ हो, उसीको प्यार करती हो।" भिनक गयी थी तुम, "तू मेरा पहलौठी का बच्चा है और पहला बच्चा हमेशा स्पेशल होता है। अगली बार ऐसा मत कहना।" मन-ही मन फूली नहीं समायी थी मैं। नन्हे से उम्मीद के बीज ने अंगड़ाई ली थी। अब मैं देखना चाहती थी कि उस पौधे में फूल खिलेगा कि नहीं! तुम्हें मैं अपने यहाँ कुछ दिन रहने के लिए बुलाती रही। न जाने कौन सी मजबूरियाँ थी, किसने तुम्हें रोक रखा था? ऐसा कौन सा अधूरा काम तुम पूरा करके आना चाहती थी। तुम नहीं आई। मेरी वह दिवाली अँधेरी रही; मुझे गिला है तुमसे। मैं तुम्हें सुख, आराम और ख़ुशी देना चाहती थी। तुम्हारे बहू -बेटे ने तुम्हारी दो रोटी को तिलांजलि दे दी थी। अब तुमसे अपनी दो रोटी भी नहीं पकती थी। यही प्लान था मेरा कि तुम्हें दो रोटी के लिए हाथ न फैलाने पड़ें। तुम्हारा स्वाभिमान तुम्हें लौटा पाऊं – यही चाहती थी मैं। कुछ माँगने नहीं आई थी।

#
नए साल से पहले तुमने मेरे यहाँ आने का फैसला लिया। बहुत उत्साहित थी तुम, किसी नन्हे बच्चे की तरह। " मेरा वक़्त नहीं बीत रहा। एक एक दिन गिन रही हूँ।" पाँव तले से मानो ज़मीन खिसक गयी। अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ था मुझे। आखिर तुमने वो कह दिया जो मैं इतने सालों से सुनना चाहती थी। मन की सूखी धरती पर प्यार की बूँद गिरी। बस उसके बाद, मेरा वक़्त ठहर गया। घड़ी रुक गयी। मेरे मन में भी असीम उत्साह था जैसे किसीको उपहार मिलने पर होता है। वह जानना चाहता है की पैकेट में क्या है। मैं जानना चाहती थी कि अब क्या होगा। तुम आयीं तो मेरी नमस्ते को परे हटाकर घर के अंदर घुसने की हड़बड़ी थी बहुत। बाद में मैं समझी कि तुम्हें डर था जैसे कोई तुम्हें खींचकर वापिस गाडी में बिठा देगा और ले जाएगा। तुम वापिस जाने के लिए नहीं आयी थी। काश! तुम यह कह देती तो गिला नहीं रहता।

तुम हमेशा के लिए ही मेरे पास आयी थी, बस मेरी हाँ का इंतज़ार कर रही थी। जब मैंने तुमसे कहा की अगर ज़रुरत पड़ी तो मैं नौकरी छोड़ दूंगी, तुम्हें जैसे अपने सभी सवालों का जवाब मिल गया था। मैं उन आखिरी पलों को सहेजना चाहती थी, ख़ुशी को पकड़ना चाहती थी। तुम भी ! पर देर हो गयी।

क्यों हम वक़्त रहते नहीं खुलते? सभी 'काश,' 'शायद', 'अगर- मगर' हमारे साथ ही चले जाते हैं। क्यों हम प्यार से इतना डरते हैं? उसे मौका नहीं देते? क्यों हम डर-डर के जीते हैं? किस बात की झिझक हमें रोकती है? क्यों हम स्वयं ही खुद को बाँध लेते हैं? हम इतने कमज़ोर क्यों हैं? मुझे गिला है कि तुम इन सवालों के जवाब दिए बिना ही चली गयी।

#
अगले दिन तुम्हारा जन्मदिन था। बड़ी ख़ुशी चाव से मैंने केक बनाया जिसपर सिर्फ तुम्हारा हक़ होगा। यहाँ कोई तुम्हारा हिस्सा नहीं खाएगा; न तुम्हारी बहू, न बेटा और न उनके बच्चे। जब पिछली बार वो सब लपेट गए थे तो तुम्हें बुरा लगा था, क्योंकि तुम उनके हिस्से का ख्याल बराबर रखती थी। हमारे रिश्ते की एक मीठी सी शुरुआत होगी, इस विश्वास को मन में लिए मैं आगे बढ़ी कि पहला टुकड़ा तुम मुझे खिलाओगी। मैं पहलौठी का बच्चा हूँ न! कैसे भूल जाओगी तुम? तुम्हीं ने तो कहा था की पहला बच्चा स्पेशल होता है। पर तुमने पहला टुकड़ा अपने दामाद को खिला दिया। जैसे किसी ने भूखे के मुँह से निवाला छीन लिया हो। मैंने एक बेवजह सी मुस्कान अपने चेहरे पर चिपका ली थी। वो दर्द, वह टीस आज भी महसूस करती हूँ। किसी को ये बात बचकानी लग सकती है, पर मेरे लिए यह वो ज़ख्म है जो कभी भरेगा नहीं, क्योंकि वह तुम्हारा आखरी जन्मदिन था। तुम्हारा दामाद मेरा पति है इसलिए मुझे बुरा नहीं लगना चाहिए था। तुम्हारे दामाद से शिकवा नहीं है। तुमसे मुझे गिला रहेगा की तुम एक बार फिर मेरा मन न पढ़ पाई, माँ!

तुम्हारे प्यार की भूख और तुम्हारे विश्वास की प्यास के लिए यह जन्म भी कम पड़ा। अगले जन्म में तुम्हारे और मेरे बीच कोई नहीं होगा, वादा करो। या मेरी माँ बनना, या सिर्फ अपने बेटे की। तुम्हारा होते हुए भी न होना, तकलीफ देता रहा। आज तुम नहीं हो। तुम्हारा जाना मेरे दिल में खंजर की तरह चुभा है। कुछ साल बीत गए हैं पर आज भी बूँद- बूँद रिस रहा है। अब किस से शिकवे करूँ? तुम्हारे साथ ही चली गयी सब शिकायतें। जब मिलेंगे न उस पार, तब पूछूँगी तुमसे कि मुझे इतना दर्द क्यों दिया? खंजर भी तुम्हीं निकलोगी, मरहम भी तुम्हीं लगाओगी। तब तक अपने सभी गिले मैंने संभाल के रखे हैं। अगर एक बार गले लगा लोगी, तो मैं भूल जाऊँगी सभी शिकवे, सभी शिकायतें, सब गिले। आज मेरा वक़्त नहीं बीत रहा, एक -एक दिन गिन रही हूँ।
( समाप्त )


Next Hindi Story

All Hindi Stories    46    47    48    49    ( 50 )     51   


## Disclaimer: RiyaButu.com is not responsible for any wrong facts presented in the Stories / Poems / Essay or Articles by the Writers. The opinion, facts, issues etc are fully personal to the respective Writers. RiyaButu.com is not responsibe for that. We are strongly against copyright violation. Also we do not support any kind of superstition / child marriage / violence / animal torture or any kind of addiction like smoking, alcohol etc. ##

■ Hindi Story writing competition Dec, 2022 Details..

■ Riyabutu.com is a platform for writers. घर बैठे ही आप हमारे पास अपने लेख भेज सकते हैं ... Details..

■ कोई भी लेखक / लेखिका हमें बिना किसी झिझक के कहानी भेज सकते हैं। इसके अलावा आगर आपके पास RiyaButu.com के बारे में कोई सवाल, राय या कोई सुझाव है तो बेझिझक बता सकते हैं। संपर्क करें:
E-mail: riyabutu.com@gmail.com / riyabutu5@gmail.com
Phone No: +91 8974870845
Whatsapp No: +91 6009890717