Home   |   About   |   Terms   |   Contact    
A platform for writers

वृक्षा अमृत

Hindi Short Story

------ Notice Board ----
स्वरचित हिन्दी कहानी प्रतियोगिता - Dec, 2022
Result   Details
--------------------------


All Hindi Stories    53    54    55    56    ( 57 )     58   

वृक्षा अमृत
Writer: नफे सिंह कादयान, गगनपुर, अम्बाला, हरियाणा


## वृक्षा अमृत

Writer: नफे सिंह कादयान, गगनपुर, अम्बाला, हरियाणा

सुबह आँख खोलने से मेरा सफर शुरू होता है। दिन भर हजारों चित्र देखती-रहती हैं मेरी आँखें। असंख्य ध्वनियां टकराती रहती हैं मेरे कानों से। पांव चलते रहते हैं। हाथ कुछ न कुछ करते रहते हैं। उठ जाता हूँ तो चल देता हूँ, थक जाता हूँ तो सो जाता हूँ। आँख खोलता हूँ प्रकाश दिखता है, बंद करता हूँ तो अंधकार में सैकड़ो टिमटिमाते बिंदु दिखाई देने लगते हैं। एक चमकदार काला आकाश है जो मुझे बिल्कुल अपने ललाट पर दिखाई देता है। जब तक रात को मुझे नींद नहीं आती मैं इन्हीं अनगिनत बिंदुओं को देखता रहता हूँ, बहुत देर तक। ऐसे जैसे किसी गहन काले आकाश के अंधकार में टिमटिमाते सितारों के बीच खोज चल रही हो। इस खोज में मेरी चेतना एक दूसरी दुनिया में प्रवेश कर जाती है। एक ऐसी दुनिया, जहाँ मैं जाना नहीं चाहता मगर यंत्रवत सा चला जाता हूँ। इस अनोखी रहस्यमय दुनिया में मेरे साथ वो भी आ जाते हैं जो वर्षों पहले मर चुके थे। सपनों की यह दुनिया मेरे दिन भर के उन अच्छे- बुरे कार्यों, विचारों का प्रतिरूप होती है जो एक दूसरे के साथ गडमड हो अजीब रहस्यमय चित्र कथाओं की रचना करते हैं। मैं अपने आप पर नियंत्रण करने की लाख चेष्टा करता हूँ पर क्रोध रूपी दानव कई बार मुझे झकड़ ही लेता है। आज भी ये ही हुआ। मैं अकारण ही अपनी पत्नी पर झल्ला उठा। दरअसल गांव के स्कूल में मैं जब पढ़ा करता था वहां हमें अध्यापक बाहर खड़े पेड़ों की छाया में बिठा देते थे। उनके ऊपर से सुंडियां गिरने से कई बार मेरे शरीर में बहुत खुजली हुई थी जिससे मुझे अपनी रिहाइश में पेड़ लगाना पसंद नहीं था।

आज पत्नी घर के प्रांगण में लगाने के लिए पीपल का पौधा ले आई तो मुझे बहुत गुस्सा आया। किसी टपोरी की तरह झगड़ते हुए मैंने उसके लाए पीपल पौधे को दीवार से बाहर फेंक दिया। अब सावन के महीने की मस्त रात्री में पत्नी रूठ कर दूसरी तरफ मुँह किए पड़ी है तो सोच रहा हूँ मुझे ऐसा नहीं करना चाहिये था। अभी मैं पत्नी को 'सॉरी' कह झगड़ा मिटाने की सोच ही रहा था कि मुझे एक लम्बी पहाड़ी श्रृंखला नजर आने लगी। मेरे पास ही एक काला ऊँचा पहाड़ था जिसकी चोटी ऊपर जाकर कहीं बादलों में विलुप्त हो रही थी। मैं अभी उस पहाड़ को ध्यान से देख ही रहा था तभी मेरे पीछे से एकाएक आवाज आई, "इसे देख क्या रहा है, हिम्मत कर ऊपर चढ़जा। तुझे आज ही अमर होने के लिए चोटी पर उगे लम्बे पेड़ों के कोटरों से अमृत पीना है।"

"ओह! पिता जी ये आप हैं! मैं तो डर गया था," मैंने पीछे मुड़कर देखा तो अपने पिता जी को खड़े पाया। "अमर कोई नहीं होता पिता जी, ये तो बस बातें हैं, कुछ मिसालें हैं, मन बहलाने के लिये। अमरत्व वाली बातों से हमारा मन खुश हो जाता है और कुछ नहीं।"

मैं पिता जी से बोला तो वह गुस्से से मेरी तरफ देखता हुआ जोर से चिल्लाया, "तेरे अंदर ये ही कमी है। तूने मेरी बात आज तक नहीं मानी, इसलिए धक्के खाता फिरता है। तुझे मालूम भी है इस काले पहाड़ की चोटी पर काले रंग के विशाल वृक्ष हैं जिनके कोटरों में वृक्षा-अमृत भरा हुआ है!"

पिता जी ने एक बार मेरी तरफ देखा कि मैं उसकी बात ध्यान से सुन रहा हूँ या नहीं। फिर वह दोबारा बोलने लगा, "ऊपर चढ़ते जाना, चाहे तुझे कोई कितनी ही आवाज लगाए, भूल से भी पीछे मुड़ कर नहीं देखना, बीजा-अमृत मत पीना, रास्ते के जिन्नों से बचकर रहना।"

पिता जी मुझे उस पहाड़ के बारे में और रास्तें में आने वाली कठिनाईयों के बारे में एक लम्बा-चौड़़ा भाषण घोट कर पिलाने लगे तो मैं कुछ अनमने मन से उसकी बात सुनने लगा। "तुझे पता भी है इस पहाड़ पर जब समीर बहती है, रिमझिम बारिश होती है। वृक्षों के पत्तों की सरसराहट में जब पंछी गीत गाते हैं तब पहाड़ से आवाज आती है, 'हे! मानव, मेरे आगोश में पलने वाले वृक्षों में दो प्रकार का अमृत भरा है। वृक्षा-अमृत और बीजा-अमृत। वृक्षा-अमृत से पेड़ जीवों को श्रृंखलाबद्ध अमर बनाए रखते हैं और बीजा-अमृत से अपने नवांकुरों को जन्म देते हैं।' पहाड़ की गोदी में बसे गाँव के लोग अमृत पान में कामयाब नहीं हो सके पर तू जरूर होगा।"

पिता जी बोलता गया। अब उसकी आधी से भी अधिक बातें मेरे एक कान में घुसकर दूसरे कान से निकल रही थी। पर मुझे पता था कि मुझे वहाँ जाना ही होगा। मैं बहस जरूर कर लेता हूँ पर ऐसा कभी नहीं हुआ मैं पिता जी का आदेश टाल दूं। "ठीक है पिता जी, आपका आदेश है तो मैं ऊपर जाकर देखता हूँ वहाँ वाकई अमृत है या नहीं..." इससे पहले कि पिता जी मेरे कानों को और पकाते मैं तेजी से ऊपर चढ़ने लगा।

मैं अपने पिता और गाँव वालों से बचपन से ही यह दंतकथा सुनता आया हूँ कि काले पहाड़ की चोटी पर ऐसे कुछ पेड़ हैं जिनके कोटरों में दो प्रकार का अमृत भरा है। वृक्षा अमृत, बीजा-अमृत। वृक्षा-अमृत पी कर आदमी कभी नहीं मरता। वह सदा के लिए अमर हो जाता है। अगर गलती से कोई बीजा-अमृत पी ले तो वह भी अमर होता है मगर वहीं काला पेड़ बन कर। वह पहाड़ की चोटी पर सदा के लिये पेड़ बन जाता है और फिर सदियों बाद उस पेड़ के कोटर में भी वृक्षा-अमृत या बीजा-अमृत बनने लगता है। वहाँ खड़े सारे पेड़ उन आदमियों से ही बने हैं जो अमृत की खोज में वहाँ पहाड़ की चोटी पर पहुँचे थे।

गाँव वाले कहा करते थे काले पहाड़ की डगर बहुत कठिन है। आज तक जो लोग उस पर वृक्षा-अमृत पीने गए उनमें से कुछ बीच रास्ते से ही लोट आए। कईयों को पहाड़ के रखवाले प्रेतों ने खा लिया। कुछ वहाँ बहने वाली आग की नदी में जल कर मर गए। कुछ किस्मत वाले चोटी के काले पेड़ों के पास पहुँचने में कामयाब भी रहे मगर उन्होंने वहाँ वृक्षा-अमृत पीने के बजाए बीजा-अमृत पी लिया और वे वहाँ सदा के लिये पेड़ बन गए। अब वहाँ जाने का कोई साहस भी नहीं करता।

अफवाहें हैं ये, सब कोरी अफवाहें। अनपढ़ गवांर लोगों की पाखण्ड लीला। भला भूत-प्रेत भी कहीं होते हैं। यह अशिक्षित लोगों के मन का वहम है। काले-सफेद पेड़ तो खैर पहाड़ की चोटी पर हो भी सकते हैं मगर ऐसा कोई पेड़ नहीं होगा जिस पर मानव को अमर बनाने के लिए अमृत मिलता हो। मुझे पिता जी और अपने गाँव वालों की बातों पर कतई विश्वास नहीं था। पिता जी के कहने से मैं वहाँ आज इसलिये जा रहा था ताकि इनके दिमाग में बैठे अंधविश्वास और डर को निकालने में कामयाब हो जाऊँ। सोचता हुआ मैं पहाड़ के कुछ ऊपर तक आ गया।

सूर्य देवता अपनी लालिमा बिखेर अभी उदय हुए थे। सूर्य किरणें जैसे ही धरा पर पड़ी समस्त चराचर प्राणियों ने आँखें खोल दी। अब वहाँ पहाड़ पर उगे पेड़ों पर अनेक प्रकार के सुंदर पक्षी चहचहाने लगे। गिलहरियां, बंदर इधर-उधर टहनियों पर दोड़ लगाने लगे। अब सफेद खरगोशों के सुंदर जोड़े वहाँ मस्ती में एक दूसरे पर कूद कर खेल रहे थे।

"मैं शाम तक तो चोटी पर पहुँच कर वापिस आ ही जाऊँगा," मैंने पहाड़ की चोटी की तरफ देखा। थोड़ा ऊपर आ कर मैं किसी ऐसे रास्ते को खोजने लगा जिस पर सुगमता से चढ़ा जा सके। वहाँ केवल तीखी ढलानें थी जिन पर ऊपर जाना आसान नहीं था। थोड़ा और आगे जाने पर मुझे एक ऐसा छोटा दर्रा नजर आया जिससे बरसात का पानी नीचे आता था।

"ऊपर चढ़ने के लिए ये रास्ता ही ठीक रहेगा," सोचता हुआ मैं नीचे की तरफ लुढ़के बड़े-बड़े पत्थरों के पास से होकर तेजी से ऊपर चढ़ने लगा। मैं जैसे-जैसे दर्रे से होता हुआ ऊपर की तरफ जा रहा था वह दर्रा तंग हो रहा था। उसके दोनों तरफ ऊँची खड़ी चट्टानें थी। मुझे तंग दर्रे में चलते हुए लगभग तीन घण्टे हो गए पर अभी मैं थोड़ी ऊँचाई पर ही चढ़ पाया था। ऊपर चढ़ने के चलते मेरी सांसे अब धोंकनी की तरह चलने लगी थी।

"कैसे चढ़ पाऊँगा मैं इतनी ऊँचाई पर? मेरी तो अभी से साँस फूलने लगी है। यहां कुछ देर आराम कर लिया जाए तो तरोताजा हो आगे बढ़ा जाये," सोचते हुए मैं बैठने लगा पर जगह इतनी तंग, आराम से बैठा भी नहीं जा रहा था। मैंने चट्टान का सहारा ले कुछ देर आराम किया और दोबारा ऊपर चढ़ने लगा। कुछ आगे जाने पर वह दर्रा एक गोल सुरंग के मुहाने पर खत्म हो गया। यह सुरंग इतनी बड़ी थी कि इसमें आसानी से अंदर खड़े होकर चला जा सकता था। अंदर निर्मल जलधारा बह रही थी। मैंने सुरंग के आस-पास नजर दौड़ाई मगर ऊपर जाने के लिए कहीं कोई रास्ता नहीं था, हर तरफ तीखी ढलान वाली चट्टानें थी।

"मुझे इस सुरंग के अंदर से ही चल कर देखना चाहिए, शायद ये कहीं ऊपर खुलती हो," अब मेरे पास और कोई चारा भी नहीं था। या तो मैं उस सुरंग में जाकर देखूं या फिर वापिस दर्रे से नीचे उतर कर पहाड़ पर जाने के लिये किसी और तरफ से रास्ता तलाश करूं।

"ऊपर जाना ही ठीक रहेगा।" सोचते हुए मैंने वहाँ बैठ डेर सारा निर्मल जल पिया, फिर कुछ देर आराम करने के बाद सुरंग में चलने लगा। मुझे यह देख कुछ संतोष हुआ कि सुरंग ऊपर चढ़ाई की तरफ निरंतर जा रही थी। दर्रे की बजाए मुझे सुरंग में चलने में आसानी हो रही थी। मैं लगभग दो घण्टे तक सुरंग में चलता रहा।

"लगता है ये सुरंग काफी लम्बी है," अभी मैं सोच ही रहा था आगे सुरंग में एक बड़ा हॉल सा आ गया। इसकी छत बहुत ऊँची थी। हॉल के आगे चट्टान की एक विशाल दीवार थी जिसमें आगे अनेक सुरंगें जा रही थी। वहाँ सुरंगों का छत्ता सा बना था। जिस सुंरग से मैं आया था अब आगे वह इस हॉल से अनेक छोटी-बड़ी सुरंगों में बंट गई थी।

"अब कौन सी सुरंग में आगे जाऊँ? " सोचते हुए मेरा दिमाग चकरा गया। मैंने ऊपर नजर उठा कर देखा तो वहाँ अनेक बड़े-बड़े चमगादड़ उल्टे लटके हुए थे। वे सभी एक दूसरे के साथ कुस्ती सी लड़ने में मग्न थे और झूलते हुए, चीं-चीं करके एक दूसरे को धकिया रहे थे। नीचे उन्होंने काली बीटों की गंदगी का ढेर लगाया हुआ था जिसमें से मुझे तेज गंध आ रही थी। चमगादड़ों से नजर हटा मैंने अपने सामने वाली सभी सुरंगों का जायजा लिया। आगे जाने के लिये मैंने उनमें से सबसे चोड़े मुहाने वाली एक सुरंग चुन ली। सोचा ये सबसे बड़ी है इसलिये बाहर जरूर निकलेगी मगर जैसे ही मैंने उसमें जाने के लिये पांव रखा एक दूसरी सुरंग के रास्ते उड़ते हुए चार-पांच चमगादड़ आ छत पर चिपट गए। "ये अवश्य बाहर से आए होंगे। इसका मतलब ये दूसरी सुरंग ऊपर कहीं जाकर निकलती है।"

मैं उस सुरंग में आगे चल दिया जिसमें से चमगादड़ अंदर आए थे। थोड़ा आगे गया तो इस सुरंग में अंधकार बढ़ने लगा। न जाने क्यों सुरंग में बहुत अंधेरा था। शायद इसका मुहाना काफी दूर होगा। मैं उसमें ध्यान से आगे देखता हुआ चलता रहा। कुछ दूर चलने के बाद वह सुरंग बांई तरफ मुड़ गई। उस तरफ मुड़ने के बाद मुझे आगे लगभग पचास मीटर पर एक झरोखा दिखाई दिया जिसमें बाहर से रोशनी अंदर आ रही थी।

"ये बाहर जाने का रास्ता हो सकता है," खुश होता हुआ मैं तेजी से झरोखे की तरफ बढ़ने लगा। जैसे ही मैं उस झरोखे के पास पहुँचा आगे का दृश्य देख मेरे होश उड़ गए। मैं अपनी पूरी जिंदगी में पहली बार इतना डरा था। वहाँ आगे झरोखे से महज दस कदम दूर सुरंग के मध्य एक विशाल दैत्याकार काला-प्रेत खड़ा था।

"ओह! हमारे गाँव वाले सत्य कहते थे कि इस पहाड़ पर काले दैत्य, राक्षस रहते हैं जो आदमी को मार कर खा जाते हैं।" इससे पहले कि वह दैत्य मुझ पर झपटता मैंने बचाव के लिए झरोखे से बाहर छलांग लगाने का मन बना लिया। अब मेरे लिये एक-एक क्षण कीमती था। मैं एकाएक सर पर पांव रख झरोखे की तरफ दौड़ा। इससे पहले कि मैं झरोखे से बाहर छलांग लगाता हड़बड़ी में मेरा पैर एक पत्थर से टकरा गया और मैं धड़ाम से झरोखे के बीचो-बीच गिर पड़ा। अब मेरा सिर झरोखे से बाहर था और धड़ सुरंग के अंदर। मेरी नजर जैसे ही झरोखे से बाहर पड़ी मैं सन्न रह गया। डर का एक और प्रहार मेरे ऊपर हुआ तो जैसे मेरे शरीर को लकवा सा मार गया। वहाँ नीचे लगभग सौ मीटर गहरी खाई में एक समतल चट्टान थी। उस चट्टान पर दर्जनों मानव कंकाल पड़े थे। उससे आगे भी एक गहरी खाई थी जो नीचे की ओर जाती दिखाई दे रही थी, इसलिये उधर से ऊपर जाने का कोई रास्ता नहीं था।

इधर दैत्य, उधर खाई। अब यहां मेरे लिये दोनों तरफ मौत थी। मौत के खोफ से मेरा शरीर सुन्न पड़ गया। क्या करूं, कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैं पशोपश की स्थिति में तीन-चार मिनट ऐसे ही पड़ा रहा। मैं हैरान था कि आखिर अब तक दैत्य ने मुझ पर हमला क्यों नहीं किया? वह झरोखे के बिल्कुल पास था। वह तो मुझे एक क्षण में दबोच कर खा सकता था। मैंने डरते-डरते सिर वापिस सुरंग में ला कर दैत्य की तरफ देखा। वह बिना हिले-ढुले वहीं पहले वाली मुद्रा में खड़ा था। "ओह! इसके पांव तो है नहीं, ये चलेगा कैसे?" जब मेरी नजर उसके पांवो की तरफ गई तो हैरानी में मेरे मुँह से निकला। उस दैत्य के पांवों की जगह एक तराशी हुई प्लेटनुमा चट्टान थी। मेरा डर कुछ कम हुआ तो खड़ा होकर मैं उस दैत्य को ध्यान से देखने लगा। "ओह! यह कोई भूत-प्रेत, दैत्य नहीं है!!" लगता है बरसाती पानी की प्रचंड धारा इस गुफा से होकर झरोखे से बाहर गिरती है, तभी पानी ने गुफा के मध्य खड़ी चट्टान को तराश कर देत्य रूप दे दिया है। मैं अकारण ही इससे डर गया। शायद इसी से डर कर यहां आने वाले अधिकतर लोग झरोखे से बाहर छलांग लगा मौत के मुँह में समा गए होंगे।

मैं उस दैत्य के पास जा उसके ऊपर हाथ फिराता हुआ सोचने लगा। यह पास से भी बिल्कुल हू-बहू राक्षसनुमा व्यक्ति दिखाई दे रहा था। इसके हाथ, मुँह , नाक, कान सब बने थे। "पानी की धारा इतनी खूबसूरती से शारीरिक अंग नहीं तराश सकती। यह किसी इन्सान की शरारत लगती है। क्या मकसद हो सकता है? जिसने इसे बनाया शायद वह नहीं चाहता होगा कोई ऊपर पहाड़ पर चढ़े," सोचता हुआ मैं चट्टानी देत्य के पास से होकर सुरंग में आगे बढ़ने लगा। कुछ दूर चलने पर मुझे एकाएक गर्मी का अहसास होने लगा। सुरंग में अब जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ रहा था तपिश बढ़ती जा रही थी। आखिरकार मुझे सुरंग का बाहरी मुहाना दिखाई दे ही गया। मैंने सुरंग का मुहाना देख ऐसे चैन की साँस ली जैसे कोई बहुत बड़ी जंग जीत ली हो, पर वहाँ और भी अधिक गर्मी थी। जब मैं सुरंग से बाहर आया तो शाम हो चुकी थी। बाहर अब सूर्य देवता पहाड़ों के आगोश में समाने वाला था। वह मुझे एक बहुत बड़े आग के लाल गोले की तरह दिखाई दे रहा था। फरवरी महीने में अभी काफी सर्दी थी। "सर्दी के मौसम में यहां इतनी तपिश, आखिर माजरा क्या है? " सोचते हुए मैंने दाएँ-बाएँ देखा तो वहाँ दूर तक लम्बी पहाड़ी श्रृंखलाएँ दिखाई दे रही थी। यह पहाड़ मेरी सोचों से अधिक ऊँचा था। मेरे गाँव से देखने पर यह इतना ऊँचा दिखाई नहीं देता। बचपन से ही मैं उत्तर की तरफ अपने गाँव से इसे देखता आया हूँ। मेरा गाँव इसकी तलहटी से महज कुछ किलोमीटर दूर बसा है।

"सूर्य अभी पूरी तरह अस्त नहीं हुआ। पहाड़ पर कुछ और ऊपर चढ़ किसी खोह में रात बिताऊँगा," ये सोच मैं सुरंग के मुहाने से बाहर निकल आया और ऊपर चढ़ने का कोई आसान मार्ग खोजने लगा। वहाँ कई तरह के पेड़-पौधे, झाड़-झंखार उगे थे। ऊपर चढ़ना मौत को दावत देने के समान था। सामने चट्टानें लगभग सीधी खड़ी थी। जैसे-तैसे कर मैं उन चट्टानों की खोहों में पेड़ो की उभरी जड़ों, बेलों को पकड़ ऊपर चढ़ने लगा। मैं जैसे-जैसे ऊपर चढ़ता जाता तपिश निरंतर बढ़ती गई। अब मुझे वहाँ पहाड़ के बराबर से धुएँ के गुब्बार उठते नजर आने लगे। "शायद वहाँ पहाड़ पर कहीं आग लगी है," सोचता हुआ मैं आगे बढ़ा और जैसे ही उस मोड़ से आगे आया जिधर धूआं उठ रहा था वहाँ का दृश्य देख मैं दंग रह गया। वहाँ नर्क का साम्राज्य था। वह पहाड़ ऊपर तक आग और धुआं उगल रहा था जिससे उसका पूरा ऊपरी भाग काला पड़ गया था। "शायद इसी लिए हमारे गाँव वाले इसे काला पहाड़ कहते हैं।"

ऊपर से लावा विकराल रूप धारण कर नीचे बह रहा था। यह आग की नदी की तरह दिखाई दे रहा था। लावे की ये नदी शाम के धुंधलके में सोने की मानिंद चमकती हुई नीचे जाकर लम्बी टेढ़ी-मेढ़ी एक बड़ी लकीर सी बन गई थी। यहां रात को ठहरना खतरे से खाली नहीं था। सुरंग से यहां तक आने की मेरी सारी मेहनत बेकार चली गई। "मुझे वापिस सुरंग में जाकर रात बितानी होगी," ये सोच मैं वापिस सुरंग में आया और एक समतल चट्टान पर सो गया। बहुत थका था इसलिये लेटते ही नींद आ गई।

सुबह पक्षियों के कलरव से मेरी आँख खुल गई। मैंने बाहर आकर चारों तरफ देखा। "शायद यहीं कहीं काले पेड़ हों? " वहाँ पेड़ तो बहुत थे मगर कोई काले रंग का नहीं था। मैं एक बार फिर ऊपर चढ़ने लगा। लावे की नदी के पास पहुँच कर मैंने देखा कि वहाँ ऊपर केवल आग के दरिया के साथ-साथ ही जाया जा सकता है। जब मैं ऊपर गया तो सुबह के समय ही गर्मी में पसीने से भीग कर मेरा बुरा हाल हो गया। एक बार तो मन में आया वापिस नीचे चल दूं मगर अब मेरी इज्जत का सवाल था। गाँव वाले मेरा मजाक उड़ाएँगे और पिता जी की ढांट भी बहुत सहनी पड़ेगी। इससे अच्छा तो मैं यहीं इस आग के दरिया में डूब मरूं।

आगे चलने का दृढ़ निश्चय करते ही मुझ में बला की हिम्मत, चुस्ती-फुर्ती आ गई। वहाँ आग मुझे झुलसाए दे रही थी मगर मैं अब हिम्मत नहीं हार रहा था। मैं लावे की नदी की तरफ से खड़ी चट्टानों की ओट ले ऊपर चढ़ने लगा। इससे मुझे चट्टानों का पिछला भाग झुलसने से बचा रहा था। पहाड़ पर कुछ ऊपर जाने पर एक और समस्या पैदा हो गई। वहाँ चट्टानों पर काई जमी थी और धूंध सी बनी हुई थी। शायद नीचे कहीं पानी था जो प्रचंड गर्मी के कारण भाप बनकर इन चट्टानों से टकरा रहा था। काई की वजह से इन पर फिसलन बहुत हो गई। अब मुझे बहुत संभल कर आगे पांव रखने पड़ रहे थे। जानता था अगर यहां पांव फिसला तो सीधा आग के दरिया में जा गिरूंगा। ऊपर चढ़ते हुए मेरा बुरा हाल हो गया। शरीर बुरी तरह झुलस रहा था। चढ़ते हुए कई बार ऐसा लगता जैसे मैं पहाड़ की चोटी के बिल्कुल नजदीक हूँ मगर चलते-चलते सुबह से शाम हो गई पर चोटी अब तक नहीं आई। मुझे पानी की भयंकर प्यास लगने लगी। कंठ सूख चुका था और गले में कांटे से उग आए थे। मुझे ये अहसास होने लगा कि अब मैं नहीं बच पाऊँगा, क्योंकि यहां रात बिताने का कोई ठोर नहीं था। शाम होने के बाद अंधकार में चला तो चार कदम पर ही आग के दरिया में जा गिरूंगा पर आज भगवान मेरा साथ दे रहा था।

चलते-चलते अब मैं इतने ऊपर आ गया कि मुझे पहाड़ का बिल्कुल ऊपरी भाग दिखाई देने लगा। आग का दरिया अब पीछे छुटने लगा। आखिर मैं रात होने से पहले काले पहाड़ की चोटी पर पहुँच ही गया। जब मैं पहाड़ के ऊपर पहुँचा तो हवा के ठण्डे झोंकों ने मेरी दिन भर की सारी गर्मी दूर कर दी। वहाँ ऊपर मंद-मंद ठण्डी समीर बह रही थी। "या..हू..." मैं जोश में भरकर दो-तीन बार जोर से चिल्लाया। मुझे ऊपर आकर इतनी खुशी हुई जैसे मैंने एवरेस्ट फतेह कर ली हो। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे माऊँट एवरेस्ट पर भी इतनी कठिन चढ़ाई नहीं होती होगी।

पहाड़ के शिखर पर कटोरे नुमा एक झील थी जिसमें साफ पानी भरा था। झील के किनारों पर किसी अज्ञात प्रजाति के वृक्ष थे। ऐसे वृक्ष मैंने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखे थे। उनका मोटा तना काजल की तरह काला था परंतु पत्ते, टहनियां सुनहरी रंगत लिए हुए थे। "हां ये ही काले पेड़ हैं।" पिता जी और गाँव के सारे बुजुर्गों की हर बात सत्य साबित हो रही थी। आज सुबह से आग के दरिया किनारे चलने से मेरे शरीर का सारा पानी निचुड़ चुका था। होठों पर इस प्रकार पपड़ियां जम गई थी जैसे चिकनी सुखी जमीन नमी के अभाव में फट जाती है। ऊपर आते ही मैं भाग कर झील के किनारे पड़ी हुई एक समतल चट्टान पर ओंधा गिर गया। उस चट्टान का निचला सीरा पानी में डूबा हुआ था। मैंने अपना पूरा सिर पानी में डुबो लिया। फिर जी भर पानी पीने के बाद मैं उस झील में नहाने लगा। पानी में बहुत गहरे गोता लगा कर देखा तो मुझे उस झील का नीचे कहीं कोई ओर-छोर नजर नहीं आया। "जरूर यह झील लावा निकलने का मुहाना रही होगी," सोचते हुए मैंने पानी से बाहर निकल उसकी बनावट पर ध्यान दिया। वाकई यह ज्वालामुखी के मुहाने पर बनी थी। उसके किनारे काले गोल कटोरनुमा थे। झील के पानी में नहा कर मुझे कुछ राहत सी महसूस हुई। वहाँ खड़े काले वृक्षों को देख कर मैं जोश से भर गया। पानी से प्यास तो शांत हो गई मगर अब पेट में भूख लगने लगी थी।

"अमर होने के बाद शायद भूख-प्यास भी सदा के लिये गायब हो जाये," ये सोचते हुए वहाँ अब मेरा पूरा ध्यान पेड़ों पर बने कोटरों में अमृत खोज कर जल्दी से अमर होने पर लग गया। "जरूर इन पेड़ों के ऊपर वृक्षा-अमृत है जिसे पी कर मैं अमर हो सकता हूँ।" मैं तना पकड़ कर एक काले वृक्ष के ऊपर चढ़ गया। मैंने ऊपर से उस पेड़ का जायजा लिया। "ओह! तो ये है किसी भी व्यक्ति को सदा के लिये अमर करने वाला अमृत।" जहाँ पर तने से शाखाएँ शुरू हो रही थी उनके बीच में एक छोटा सा कोटर नुमा खोखर बना हुआ था जिसमें सुनहरे पीले रंग का पेय भरा था। यह खोखर बिल्कुल झील की छोटी सी प्रतिलिपी लग रहा था। उसके किनारे भी काले पत्थर की तरह सख्त से थे। यह पेय उसके मोटे टहनों से बूंद-बूंद कर इस प्रकार नीचे रिस रहा था जैसे किसी पेड़ पर गोंद निकलता है। "हां ये ही वृक्षा-अमृत है। इसे पी कर अब मै अमर हो जाऊँगा।" मैंने उत्साह में भरकर वह पेय पदार्थ पीना चाहा तो मेरे हाथ जहाँ के तहां रूक गए। अचानक मेरे दिल से आवाज आई "ये बीजा-अमृत भी तो हो सकता है जो मुझे इस विराने में सदा के लिये इन जैसा काला पेड़ बना देगा। इसकी क्या गारंटी है कि ये ही वक्षा अमृत ही है?" मैं असमंजस में पड़ गया। मैंने उस पेड़ के एक ऊँचे टहने पर चढ़ कर वहाँ खड़े सभी वृक्षो को ध्यान से देखा। सभी के तनों के ऊपर एक जैसा पेय पदार्थ भरा हुआ था। वहाँ सारे वक्षों का एक झुरमुट सा बना था मगर झील की दूसरी तरफ एक ऐसा विशाल वृक्ष भी था जो उन सब से लम्बा था। वह झील के दूसरे किनारे पर अलग से अकेला खड़ा था। उसके आस-पास दूसरा कोई वृक्ष नहीं था। न जाने उस पेड़ में क्या बात थी कि मैं उसकी तरफ आकर्षित हो रहा था।

"वह वृक्ष और पेड़ों से अलग है। उसके पत्ते भी अलग प्रकार के दिखाई दे रहे हैं। जरूर वो ही अमर करने वाले अमृत का वृक्ष हो सकता है," सोचता हुआ मैं पेड़ से नीचे उतर आया और नदी के दूसरी तरफ जाकर अकेले खड़े लम्बे पेड़ पर चढ़ गया। उस वृक्ष को लेकर मेरा गणित एकदम सीधा था। बाकी क्योंकि एक जैसे पेड़ थे जो मेरे विचार से अनेक लोगों द्वारा बीजा-अमृत पीने से बने थे, जो पेड़ सबसे अलग है उसमें ही वृक्षा-अमृत हो सकता है।

अब तक रात हो गई। वहाँ चांदनी रात में वह पेड़ बहुत सुंदर दिखाई दे रहा था। "अमर होने के बाद तो कोई चिंता ही नहीं रहेगी। मैं अब अमृत पी इस पेड़ से नीचे उतर कर यहीं किसी चट्टान पर सो जाऊँगा और सुबह उठकर आराम से नीचे उतर घर चला जाऊँगा। आराम से ही क्यों, मैं लम्बी-लम्बी छलांगें लगाता हुआ नीचे उतरूंगा क्योंकि अमर होने पर कहीं से भी गिरकर मरूंगा तो बिल्कुल भी नही," सोचते हुए अभी मैंने अपने हाथ के चुल्लु में उस वृक्ष के कटोर का पेय भरकर अपने मुँह की तरफ किया ही था कि मेरे कानों में एक सरगोशी सी हुई, "पहले हमसे जितना लिया है उतना हमें लोटाओ राही, तब अमर होना।"

"राही!! कौन बोला ये?" मैंने चारों तरफ देखा पर कहीं कोई नहीं था। "ओह! शायद ये पेड़ ही बोलता है। मैं जितना पेय पीऊँगा ये उतना ही कोटर में डालने को कह रहा है। कोई बात नहीं अभी डाल देता हूँ। मैंने वह पेय पदार्थ पी लिया। वह बहुत स्वादिष्ट था। उस पेड़ से उतर कर मैं नीचे आया और दो-तीन चौड़े पत्तों की कटोरी सी बना उसमें झील से निर्मल जल भरकर उस ऊँचे पेड़ के कोटर में डाल दिया। वह पेय पदार्थ अब मेरे शरीर में एक नई तरह की उर्जा का संचार हो रहा था। मेरा मन मयूर नाचने को कर रहा था। "हा... हा... हा... अब मैं अमर हो गया हूँ। अब कभी मेरी मौत नहीं होगी। मेरे बच्चे, पौत्रे, परपोत्रे बुढ़े होकर मरते रहेंगे पर में सदा जवान और अमर बना रहूँगा।" खुश होते हुए मैं वहाँ पड़ी एक विशाल समतल चट्टान पर चढ़ कर सचमुच नाचने, कूदने लगा।

काफी देर तक नाचने के बाद जब मैं थक गया तो उसी चट्टान पर बैठ गया। ये देखने के लिये वहाँ से मैंने एक छोटा पत्थर उठा अपने हाथ पर दे मारा कि अमर होने के बाद दर्द होता है या नहीं। मगर यह क्या? मेरे नीचे रखे हाथ पर जैसे ही पत्थर लगा दर्द से मैं बिलबिला पड़ा। हाथ में पत्थर लगने से क्यों दर्द हुआ मेरी समझ में नहीं आ रहा था। गाँव वालों का तो कहना था अमर होने के बाद शरीर को चाहे जितना मर्जी काट डालो वह फौरन जुड़ जाता है, और दर्द भी नहीं होता। "तो क्या मैं अमर नहीं हुआ? अब ये कैसे पता चले कि मैं अमर हो गया हूँ या नहीं?" मैं अपने से ही सवाल-जवाब करता हुआ कुछ देर तक असमंजस की स्थिति में रहा। तभी मेरे पेट में कुछ चूबन सी हुई। ऐसा लगा अमाशय में कोई छोटा सा कीड़ा कुलबुला रहा हो। मैंने पेट को हलके हाथ से सहलाया मगर कोई फायदा नहीं हुआ। पेट में सरसराहट के साथ अब हल्का-हल्का दर्द शुरू हो गया। "अब ये क्या नई मुसीबत है? यहां तो काई डॉक्टर, वैध भी नहीं जो मुझे पेट दर्द की गोली खिला दे। शायद भूख की वजह से दर्द हो रहा है," सोचते हुए मैं खड़ा हो कर इधर-उधर टहलने लगा। पूनम की चांदनी रात में वहाँ चारों तरफ नीरवता फैली थी मगर कभी-कभी पहाड़ के नीचे लावे के उद्गम स्थल से बड़ाम-बड़ाम की आवाजें रात की खामोशी को भंग कर देती थी। वहाँ रात में सब पेड़-पौधे जैसे खामोशी की चादर ओढ़े सो रहे थे। टहलने के बावजूद भी मेरे पेट का दर्द था कि कम होने के बजाए बढ़ता ही जा रहा था। कुछ देर बाद ही मेरे पेट में भंयकर दर्द शुरू हो गया। दर्द जब असहनीय हो गया तो मैं वहीं चट्टान पर लेट कर लोट-पोट होने लगा। अब अमर होने की मेरी सारी मस्ती, सारी खुशी काफूर हो चुकी थी और मैं परमात्मा से हाथ जोड़ कर विनती कर रहा था कि हे प्रभू! मुझे किसी तरह इस दर्द से निजात दिलवाइये।

थोड़ी देर में ही दर्द इस कदर बड़ गया मुझ पर बेहोशी सी छाने लगी। मुझे लगा जैसे कोई चीज मेरे पेट को फाड़ कर बाहर आना चाहती है। चट्टान पर पड़ा मैं पेट पकड़ कर चींखते चिल्लाते हुए दर्द से कराह रहा था तभी उस पहाड़ के नीचे इतनी तेज गड़गड़ाहट हुई, समूचा पहाड़ जोर से हिल गया। मेरे पेट में एक बार फिर दर्द का भयंकर गुब्बार सा उठा और काले रंग का एक छोटा सा पौधा मेरा पेट फाड़कर बाहर निकल आया। अब मैं आँखें फाड़े उस पौधे को देख रहा था। यह उन्हीं पेड़ों का छोटा सा प्रतिरूप था जो वहाँ झुरमुट में उगे हुए थे। अब मुझे लग रहा था कि वो अलग खड़ा पेड़ ही बीजा-अमृत था और यहां आए हुए सभी लोग मेरी तरह कुछ ज्यादा ही समझदार थे। उन्होंने भी मेरी तरह बीजा-अमृत पिया था।

"क्या तुमने वो सब लौटा कर अमृत पिया है जो तुम हमसे लेते हो?" उस नन्हे पौधे के पत्तों से मुझे आवाज सुनाई दी।

"हां, हां, मैंने उससे भी अधिक शुद्ध जल तुम्हारे कोटर में डाल दिया था जितना मैंने पिया था," मैं दर्द से कराहता हुआ बोला।

"मूर्ख प्राणी, हम तुम्हें खाना देते है, पहनने के कपडे़, इंधन, फर्निचर, घर, उद्योगों और अन्य सैकड़ों चीजों के लिये तुम हमें बेदर्दी से काट कर इस्तेमाल करते हो। क्या चुल्लू भर पानी हमारी कीमत हो सकती है? तुमने हमारे जंगलों का सफाया कर हमारी हरी-भरी बस्तियों को उजाड़ दिया, क्या तुम हमें उतने ही लगाते हो जितने काटते हो?"

"हमें माफ कर दो भाई।" मेरी दर्द से जान निकली जा रही थी। मैंने पेट पकड़ खड़े होने की कोशिश कि तो वह चट्टान जोर-जोर से हिलने लगी। देखते ही देखते वहाँ भयंकर जलजला सा आ गया जिससे चट्टानें नीचे की तरफ लुढ़कने लगी। भुकंप में जब मैं वहाँ से नीचे आग के दरिया की तरफ फिसला तो मेरा सर एक काले पेड़ से जा टकराया। एक जोरदार झटका सा लगा और मैंने अपने आप को घर में बैड पर बैठे पाया। मैं स्वप्न की दुनिया से निकल हकीकत में आ चुका था मगर मेरा यह स्वप्न बहुत भयानक, रोमांचकारी और मुझे वृक्षों को बचाने के प्रति सचेत करने वाला था। मैं बैड से उठा और चाय-नाश्ता कर पेड़ नर्सरी में पहुँच गया। वहां से आम, अमरूद, पीपल, नीम के दर्जन भर पेड़ लेकर आया तो मेरी पत्नी मुझे आश्चर्य से देखने लगी। उसे मैंने रात में दिखाई दिए स्वप्न के बारे में बतलाया तो वह हंस कर बोली, "चलो अच्छा हुआ जो पेड़ लगाने की अक्ल आ गई। ईश्वर सभी को अगर ऐसे स्वप्न दिखला दे तो ये दुनिया हरी-भरी हो जाएगी जिससे साँस लेने के लिए ऑक्सीजन की कमी नहीं रहेगी।"
( समाप्त )


All Hindi Stories    53    54    55    56    ( 57 )     58   


## Disclaimer: RiyaButu.com is not responsible for any wrong facts presented in the Stories / Poems / Essay or Articles by the Writers. The opinion, facts, issues etc are fully personal to the respective Writers. RiyaButu.com is not responsibe for that. We are strongly against copyright violation. Also we do not support any kind of superstition / child marriage / violence / animal torture or any kind of addiction like smoking, alcohol etc. ##

■ Hindi Story writing competition Dec, 2022 Details..

■ Riyabutu.com is a platform for writers. घर बैठे ही आप हमारे पास अपने लेख भेज सकते हैं ... Details..

■ कोई भी लेखक / लेखिका हमें बिना किसी झिझक के कहानी भेज सकते हैं। इसके अलावा आगर आपके पास RiyaButu.com के बारे में कोई सवाल, राय या कोई सुझाव है तो बेझिझक बता सकते हैं। संपर्क करें:
E-mail: riyabutu.com@gmail.com / riyabutu5@gmail.com
Phone No: +91 8974870845
Whatsapp No: +91 6009890717