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पतंग

Hindi Short Story

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स्वरचित हिन्दी कहानी प्रतियोगिता - Dec, 2022
Result   Details
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पतंग
Writer - गौरव शर्मा, लाड़पुरा बाजार, कोटा (राजस्थान)



पतंग

Writer - गौरव शर्मा, लाड़पुरा बाजार, कोटा (राजस्थान)

घर में जैसे ही घुसा, फिर से वही चेहरा सामने आ गया और फिर उसकी वही वाली बात -- भैया, मैं आपकी छत से मेरी पतंग ले ले जाऊँ?

उसे शायद इत्मीनान होता था कि मैं 'हाँ' ही कहूँगा, इसीलिए मेरे उत्तर से पहले ही वो सरपट सीढ़ियाँ चढ़ कर छत पर पहुँच गया; उतरा तो हाथ में कई सारी रंग- बिरंगी पतंगें थी। फिर मुझे "थैक्यू” बोलता हुआ वो अपने घर की तरफ दौड़ गया।

पिछले दस- पंद्रह दिनों से रोज यही तो हो रहा था। जैसे ही मैं ऑफिस से घर पहुँचता, ये जनाब भी पीछे- पीछे चले आते। क्या पता मेरे आने का ही इंतजार करता रहता था क्या?

मकर संक्रांति आने वाली थी और ऊपर से कोरोना के कारण लगा हुआ अवकाश। इन दिनों मोहल्ले के सभी बच्चे अपनी छतों पर ही सुबह से शाम तक डेरा डाले रहते थे। इस लड़के का नाम तो नहीं जानता था मैं, पर रहता वो सामने वाली गली में ही था। उम्र होगी लगभग 11- 12 साल। परन्तु उसकी समझदारी उसकी उम्र से कई गुना ज्यादा थी। मेरे घर से उसके घर की छत साफ नजर आती थी। मैंने उससे एक- दो बार पूछा – करता क्या हैं? इतनी सारी पंतगों का, उड़ाते हुए तो आज तक नहीं देखा तुझे?

मैंने पर वो हर बार इस बात को टाल जाता। मेरी छत पर कट कर आने वाली पतंगों को कोई उड़ाने वाला भी नहीं था, तो इसे ये पतंगें दे कर मुझे भी अंदर से खुशी की अनुभुती होती थी।

उस दिन ऑफिस की छुट्टी होने के कारण मैं घर पर ही था, तभी उस लड़के की आवाज आई, वो दरवाजे पर ही खड़ा था। "भैया, मैं आपकी छत पर से पतंग ले लूँ?"

मेरे 'हाँ' कहते ही अपनी रफ्तार से वो छत पर पहुँच गया और पतंगें ले आया। उसके जाते ही मन को ना जाने क्या सूझी कि -- चलो आज देखा जाएं, ये इन पतंगों का करता क्या हैं?

मैं ये जानने के इरादे से उसके पीछे- पीछे हो लिया। मेरे घर से निकल कर वो सड़क की तीसरी वाली गली में घुस गया। वहाँ एक पतंग वाले की दुकान पर सारी पतंगें दे कर उसने पैसे ले लिए। ये जाहिर हो चुका था कि वो अब तक सारी पतंगें बेचता ही आ रहा था। फिर दुकानवाले की बात से मेरे शक को पक्का होने की जमीन मिल गई। वो उससे कह रहा था – बेटा, क्यूँ रोज इन पतंगों को आधे से भी कम दाम पर बेच जाता है। वो तो तू इतनी मेहनत करके लाता है इसलिए ,वरना लेता कौन है उड़ी हुई पतंगें, तू ही उड़ा लिया कर इन्हें।

दुकानवाले की बात अनसुनी कर वो फिर अपने घर की तरफ दौड़ गया। मैं भी चुपचाप उसके पीछे चलने लगा। सुना था कि आजकल के बच्चे इधर- उधर से पैसे इकट्ठे कर के गलत आदतों में पड़ जाते हैं और अब यही शक मुझे इस पर हो रहा था। वो अपने घर की तरफ मुड़ गया। उसके घर पहुँच कर मैं उसके दरवाजे की आड़ में ही खड़ा हो गया। टूटे दरवाजे की आड़ से अन्दर का सबकुछ नजर आ रहा था। अन्दर से उस लड़के की आवाज आ रही थी। पास ही खाट पर एक छ:- सात साल की कमजोर- सी लड़की चद्दर ओढ़े लेटी हुई थी। लड़का पास खड़ी अपनी माँ से कह रहा था – माँ, देखो आज मैंने और पैसे इकट्ठे किए। अब हम छुटकी को उसके जन्मदिन पर उसकी पसंदीदा नीली आँखों वाली गुड़िया जरूर ला कर देंगे।

उसकी माँ ने उसे गले से लगा लिया और बोली – क्यूँ कर रहा है बेटा ये सब? जबकि तू भी जानता हैं इसकी बीमारी के बारे में। क्या तुझे लगता हैं कि ये इसके जन्मदिन तक इस दुनिया में रहेगी?

जरूर रहेगी माँ... हम दोनों हैं ना इसके लिए।

उसकी बातों में उसका विश्वास साफ झलक रहा था। उसकी आँखों में विश्वास की चमक थी और मेरी आँखों में नमी। मैं दबे पाँव घर लौट आया। ये दुआ करता हुआ कि उसकी "छुटकी" को कुछ ना हो।
( समाप्त )


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