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प्राप्ति

Hindi Short Story

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स्वरचित हिन्दी कहानी प्रतियोगिता - Dec, 2022
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प्राप्ति
( The Winner story, March: 2022 )
Writer: Vaishnavi Pandey, Gorakhpur, Uttar Pradesh


## प्राप्ति

Writer: Vaishnavi Pandey, Gorakhpur, Uttar Pradesh

नीलेपन की गाढी चादर ओढे आकाश नवीन रंगों में सराबोर है। वर्षा के आगमन का संदेश प्राप्त होते ही धरती ने पुनः हरितिमा की चादर ओढ़ ली है। ठहरे हुए जल पर धीमे-धीमे गिरती वर्षा की बूंदों से सुरम्य संगीत सुनाई देता है। राह में आते और शीघ्र ही पीछे छूट जाते मनोहर दृश्यों से मुझे मेरे गंतव्य के और समीप आने की अनुभूति हो रही है। गाड़ी की खिड़की से दिखाई देते रूई के रेशों से सफ़ेद बादलों में मैं आज पुनः वही आकृति बना रहा हूँ जिसने वर्षों पूर्व मेरे जीवन की काया पलट दी थी। वह आकृति-वह दृश्य आज भी मेरे हृदय में वैसी ही अंकित है। कहते है काल-चक्र अति क्रूर है, परंतु मेरे सन्दर्भ में समय सदा ही उदार रहा है। संभवतः इस कारण कि उसकी क्रूरता के प्रमाण अब मेरे स्मरणों में धुंधले पड़ चुके हैं। जैसे-जैसे राह के मील-पत्थर पीछे छूट रहे, मेरी उत्सुक्ता बढ़ रही है। पाँच दशक- हाँ! पूरी अर्ध-शताब्दी बीत गई उस भीषण विनाश को जिसने मेरे बचपन के स्मरणों को इस प्रकार मिटा दिया जैसे वह कभी था ही नहीं।

तब मैं अट्ठारह वर्ष का था। शहरों की चकाचौंध से मीलों दूर बर्फ से ढकी मनमोहक वादियों के हल्के-बैंगनी मौसम में हमारा पंचवटी गाँव था। प्रकृति के असीम सौन्दर्य के मध्य, भार्गवी नदी के किनारे स्थित ऊँचे-ऊँचे देवदार के वृक्षों वाले कच्चे रास्ते से होते हए, कंटीले बाड़े से घिरा हमारा घर था। हमारा घर- जहाँ सवेरा सूर्योदय के पूर्व ही हो जाता। पिताजी को पंचवटी से चार मील दूर लकड़ी के कारखाने को जाना होता, तो अम्मा सवेरे-सवेरे ही रसोई से कोई पहाड़ी लोकगीत गुनगुनाती रहती। भार्गवी पर स्थित लड़खड़ाते पुल के उस पार पंचवटी का हमारा अकेला विद्यालय था। ढलती संध्या में सूखी पत्तियों के अलाव से उठता धुंआ देवदार की ऊँचाईयों को नाँपता और रात्रि की धुंध में ओझल हो जाता। आज भी मन जब कभी पंचवटी की राहों में भटकता है तो किसी ऑडियो फिल्म की तरह बैकग्राउंड में अम्मा के पहाड़ी लोकगीत के साथ स्मृतियों की स्क्रीन पर कभी देवदार के ऊँचे वृक्ष, तो कभी भार्गवी पर लड़खडाता पुल, सब बिलकुल जीवंत-सा प्रतीत होता है।

तब जीवन सरल था, या हम जीवन की वास्तविकता से अनभिज्ञ; मुझे आज भी संदेह है। प्रकृति का सौन्दर्य हमें ईश्वर की उदारता प्रतीत होती थी, परंतु मनुष्य का स्वार्थ आशीर्वाद को भी अभिशाप में परिवर्तित करने की शक्ति रखता है। एक रोज़ पंचवटी के सूर्य ने दिशा बदल ली और लकड़ी का कारखाना बिक गया। शीघ्र ही समाचार मिला की किसी बड़े प्रोजेक्ट के अंतर्गत नई कम्पनी को अतिरिक्त इनपुट्स की आवश्यक्ता है, जिसकी पूर्ति पंचवटी के वन-वृक्षों से होगी। पंचवटी के प्रत्येक व्यक्ति के विरोध के बाद भी एक रात भार्गवी के किनारे की भूमि के वृक्ष काट दिए गए। ग्रामीणों के 'आक्रमक विरोध को' भारपाई की राशि के साथ नए सिरे से वृक्षारोपण करने के आश्वासन ने ठंडा कर दिया। परंतु संपूर्ण पंचवटी को अपने अमृत-जल से सींचने वाली भार्गवी को ग्रामीणों का यह व्यवहार न भाया। अगले तीन चार दिनों तक निरंतर वर्षा हुई। भार्गवी के जल-स्तर में तीव्र गति से वृद्धि होने लगी। देवदार के वृक्षों की अनुपस्थिति सभी को खटकने लगी। देखते-ही देखते संपूर्ण पंचवटी भार्गवी के जल में समा गया। मेरी आँखों के समक्ष मेरा परिवार व मेरा सारा गाँव प्रकृति के प्रकोप का शिकार हो गया। पंचवटी के अस्त होते सूर्य ने भार्गवी में डूबते हुए, उसका अस्तित्व ही मिटा दिया।

परंतु हर सूर्यास्त धरती के दूसरे क्षोर पर एक सूर्योदय ही तो है। पुनः सूर्योदय हुआ और न जाने कैसे रेस्क्यु ऑपरेशन टीम की सहायता से मैं बच गया। अंत को इतने समीप से देखकर जीवित होकर भी मैं मत-सा था। शिविर में एक भी मुख परिचित न लगता या संभवत: मेरी दृष्टि मेरे परिवार को हर व्यक्ति में ढूँढ़ती और हर बार ही निराश हो जाती। पैक्ड-फूड का स्वाद तो अम्मा की रसोई की सीढ़ियाँ तक न चढ़ पाता। मैं सदैव पिताजी से कहता था कि मैं पंचवटी से दूर कभी कहीं न जाऊँगा परंतु अब तो लौटने के लिए पंचवटी ही न था। मुझे जीवन में रुचि ही न रही, मैं मन ही मन स्वयं को जीवित रहने के लिए कोसने लगा। पंचवटी के बिखरते दृश्य मेरी दृष्टि से हटते ही नहीं। ईश्वर से तो मेरा विश्वास ही उठने लगा। अम्मा कहती थी, जो भी कुछ घटता है 'इष्ट या अनिष्ट' सब ईश्वर के संकेतो पर घटता है। परंतु किसी शांतिपूर्ण जीवन का विनाश करने के पीछे ईश्वर की भला क्या मंशा हो सकती है?

मैं थक चुका था; जीवन से। मेरा बीता हुआ कल तो मृत हो गया था और आने वाला कल; मैं तो उसकी कल्पना भी न कर सकता था। रात्रि के अंधकार में अंर्तमन से व्यथित होकर जब मैं शिविर के एक ओर स्वयं में भटक रहा था तभी मुझे दीपों से जगमगाता एक स्थान दिखा। मैंने सोचा कि यदि यह कोई शिवालय या मंदिर हो तो आज मैं अपने सभी प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करके रहूँगा, यह जानकर रहूँगा कि भला मेरा जीवित रहना ईश्वर की उदारता है या उसका अभिशाप!

अपने प्रश्नों की माला गूँथते मैं धीरे-धीरे आगे बढ़ा। घनी धुंध में दीपों की रोशनी आकाश में बिखरे तारों-सी प्रतीत हो रही था। धूप बत्ती और चम्पा के फूलों की सुगंध से आच्छादित वातावरण मेरे बिखरे मन को समेट रहा था। बर्फ-से पिघलते गीले फर्श पर बढ़ते हुए जैसे ही मैंने प्रांगण की सीढ़ियाँ पार की, अपनी आंखों के समक्ष उस दृश्य को देख मैं स्तब्ध रह गया। पुराणों में वर्णित वह कथा जिसे अम्मा हमें हर विष्णु रथयात्रा के पर्व पर सुनाती थी, आज मैं उसे जीवंत होते देख सकता था। मेरी दृष्टि की सीमा तक श्री हरि विष्णु उपासक गजराज गजेन्द्र की विशाल प्रतिमा थी। मगरमच्छ के जबड़ो में छटपटाते पाँव की असीम पीड़ा सहन करते हुए भी भगवान नारायण को कमलपुष्प अर्पित करते उस गज के मुख पर ईश्वर के प्रति असीम समर्पण और भक्त की असहनीय पीड़ा देख दौड़े चले आए भगवान विष्णु के मुख पर असीम प्रेम। मैं निःशब्द रह गया। वह एक प्रतिमा थी, एक मूक प्रतिमा। परंतु न जाने क्यूं मैं सुन सकता था, मैं देख सकता था वे सभी संकेत जो वह मुझे देना चाहती थी। मैं स्वयं को उस निसहाय जीव के स्थान पर देखने लगा। मुझे ईश्वर के समक्ष लाए गए अपने सभी प्रश्न निरर्थक प्रतीत होने लगे या संभवतः मुझे उनके उत्तरों में रूचि ही न रही। मंदिर के दीपकों से उठते प्रकाश में मुझे मेरा भविष्य दिखने लगा। मैं भाव-विभोर दृष्टि से उस प्रतिमा को देखने लगा और क्षण-मात्र के लिए मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे भगवान विष्णु की दृष्टि गजराज की ओर नहीं बल्कि मेरे निसहाय मुख की ओर ही केंद्रित हो। उस क्षण से आज तक मैंने हर क्षण में उन्हें अपने सानिध्य में पाया है।

रात्रि का अंधकार उगते सूर्य के सुनहरे प्रकाश में ध्वस्त हो गया परंतु किसे ज्ञात था कि मेरे जीवन का उदय पंचवटी के सवेरों की भाँति ही सूर्यादय के पूर्व ही हो चुका था। जिस ईश्वर की प्राप्ति हेतु ऋषि-मुनि वर्षों तप करते हैं उसी ईश्वर ने मेरे अंत:कण में विद्यमान होकर मुझे अग्रिम वर्षों में अनेक पुण्यों का भागीदार बनाया। परंतु अपने माता-पिता का मुख संसार के सभी निसहाय वृद्धों में देखना मैं पुण्य नहीं, कर्तव्य मानता हूँ। वहीं जब कभी मैं स्वयं को प्रकृति की सेवा में अर्पित करता हूँ तो सदा यही आशा रहती है कि मैं पंचवटी पर भार्गवी का ऋण चुका रहा हूँ। संसार से विमुख होकर किसी पर्वत शृंखला के मध्य तपस्या करने से संभवतः ईश्वर प्राप्त हो जाए परंतु उनके रचे संसार के बीच रहकर उसका संरक्षण करने में ही ईश्वर की प्राप्ति का वास्तविक अर्थ है।
( समाप्त )


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