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सबक

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स्वरचित हिन्दी कहानी प्रतियोगिता - Dec, 2022
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सबक
( One selected story of 'नगेन्द्र साहित्य पुरस्कार', Hindi story Writing competition, Dec, 2022 )
Writer: Gurmeet Kaur, Brahmpuri, Jaipur, Rajasthan


# मैं ऋतु कुमावत हूं, अजय कुमावत की पत्नी। विजय कुमावत और रजनी कुमावत की बहु। मेरी चार साल की एक बेटी है - बुलबुल। दो महीने पहले जब मुझे पता चला कि मैं फिरसे मां बनने वाली हूं तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। घर में सब बहुत खुश थे। अजय तो आने वाले बच्चे के लिये इतने आतुर थे कि उन्हें नौ महीने इंतजार करना बहुत मुश्किल लग रहा था। उनका बस चलता तो समय का पहिया घुमाकर जीवन को नौ महीने आगे ले जाते। सास - ससुर भी फिर से मेरे लाड करने लगे थे। सासू-मां मेरा बहुत ख़याल रखती, उन्होंने अपने हाथों से मेरे लिये देसी घी और गोंद के लड्डू बनाए और अजय को हिदायत दी कि वो बिना लापरवाही के अपने हाथ से रोज़ मुझे एक - एक लड्डू सुबह - शाम खिलाएं। सब - कुछ कितना अच्छा था। लेकिन धीरे - धीरे मेरी ये खुशी डर में बदलती चली गई। मेरी सासू-मां हर वक्त पोते की रट लगाए रखती। उठते -बैठते वो खुशी से चहकती रहती और मुझे 'लाले की माई' - 'लाले की माई' कहकर पुकारती। उन्हें पूरा विश्वास था कि इस बार मुझे बेटा ही होगा। उनका विश्वास मेरे डर का कारण बन रहा था। जब कभी मैं उनसे कहती कि मां अगर बेटी हुई तो? वो झट से मेरे मुंह पर हाथ रख देती और कहती कि, "ऐसी बात सोच भी मत बींदड़ी; शुभ - शुभ सोचेंगी तो शुभ - शुभ ही होगा; ठाकुरजी पर विश्वास रख।"

जैसे -जैसे वक्त बीतता जा रहा था, मेरे मन का डर भी बढ़ता जा रहा था और दो दिन पहले मेरा डर साकार रूप लेकर मेरे सामने आ खड़ा हुआ। अजय और सासू-मां मुझे अस्पताल ले गये मेरी कोख में पल रहे बच्चे का लिंग परीक्षण करवाने के लिये। मैं उनके साथ नहीं जाना चाहती थी, लेकिन उनका विरोध नहीं कर सकी। जब रिपोर्ट आई तो डॉक्टर ने बताया कि मेरी कोख में लड़का नहीं, लड़की है। बस उसी पल मेरे सारे लाड - मनुहार बंदकर दिये गये। घर में जैसे मातम सा छा गया था। अजय ने दो दिन तक मुझसे बात ही नहीं की, कुछ पूछती तो बस 'हां - हूं' में जवाब देकर निकल जाते। ऐसा लग रहा था जैसे कोई अपराध कर दिया था मैने और आज सुबह मुझे उसकी सज़ा सुना दी गई। सासू-मां और अजय ने फैसला ले लिया था कि कल अस्पताल ले जाकर वो मेरा अबॉर्शन करवा देंगे, उन्हें एक और लड़की नहीं चाहिए थी।

उस पल से जैसे मेरी सांसे ही थम गई, मेरा रोम - रोम रो रहा था। लड़का या लड़की उससे क्या फर्क पड़ता है, वो मेरी संतान है और मेरे लिए यही काफी है। मैं उसे जन्म देना चाहती थी, उसे अपने जीवन का हिस्सा बनाना चाहती थी लेकिन मैं कर भी क्या सकती थी। आख़िर मैं तो एक बेबस, कमज़ोर औरत हूं जिसने कभी अपने पति के सामने नज़रें तक ऊंची नहीं की थी, मैंने कभी अपने सास - ससुर को पलटकर जवाब नहीं दिया था तो मैं आज उनका विरोध कैसे कर सकती थी। मुझ में तो इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि मैं अपने पति से ये पूछ सकूं कि जिस बच्चे का मुंह देखने के लिए उनसे नौ महीने इंतजार नहीं हो रहा था, उसी बच्चे को हमेशा के लिए मौत की नींद सुला देनेका फैसला उन्होंने कैसे कर लिया। काश कोई होता जिससे मैं अपना दर्द कह सकती! कोई होता जिससे मैं मदद मांग सकती! काश भगवान किसी परी को भेज़ दे जो जादू की छड़ी घुमाकर सब कुछ ठीक कर दे। बालकनी में बैठी मैं इन्हीं चिन्ताओं में खोई थी। बुलबुल मेरे पास ही बैठकर बिल्ली के बच्चों को खेलते हुए देख रही थी जो हमारे पासवाले घर में अपनी माँ के साथ खेल रहे थे। वो घर साल भर से खाली पड़ा था। बिल्ली के बच्चे छोटे -छोटे, रूई जैसे सफेद और नरम, हरी - हरी आंखों वाले। आंगन के गेट पर कोई ताला नहीं लगा था, इसलिए गली के सारे बच्चे बिल्ली के उन बच्चों से खेलने के लिए अंदर आ जाते। इतना ही नहीं, कोई वहाँ एक कटोरी रख गया और अब बारी- बारी से सब बच्चे उसमें दूध डाल जाते। मैं भी ऊपर से ही बुलबुल के साथ उन बच्चों को खेलते हुए देखा करती और बिल्ली को कुछ-न कुछ खाने के लिए दे देती। कुल मिलाकर मां और बच्चों के लिए खाने की कोई कमी नहीं थी। मैं सभी को बार - बार गेट बंद करने का निर्देश देकर कहती कि यदि कोई कुत्ता आ गया तो इसके बच्चों को खा जाएगा। सूने घर में बिल्ली और उसके बच्चों के आ जानेसे रौनक हो गई थी। दिन भर बच्चे आंगन में खेलते रहते और शाम होते ही बिल्ली एक - एक कर उन्हें अपने मुंह से उठाकर चबूतरे के नीचे छुपा देती और खुद चबूतरे पर बैठकर निगरानी करती। ज़रा सी आहट पर वो चौंक जाती और पूरे आंगन में पहरा देती। बिल्ली को यहाँ आए हुए दो-तीन दिन हो गए थे।

शाम ढलने के बाद मैं बालकनी से सूखे हुए कपड़े उतारने गई। सर्दियों के दिन हैं इसलिए अंधेरा भी जल्दी हो जाता है और गली में सन्नाटा भी। तभी मैंने देखा कि पासवाले घर के आंगन का गेट खुला हुआ था और एक कुत्ता अंदर घुस गया था। उसे बिल्ली के बच्चों के वहां होने की भनक लग गई थी और आज वो उनसे ही अपना पेट भरने की फिराक में था। अभी मैं कुछ सोच-समझ पाती उससे पहले ही बिल्ली बिजली की तेजी से उस पर झपटी। वो पूरी ताकत से उस पर झपटी थी। उसका प्रहार इतना तेज था कि वो कुत्ता दो - तीन फीट दूर जाकर गिरा और उसके पेट पर बिल्ली के नाखूनों से घाव भी हो गए थे। कुत्ता दुम दबाकर भाग गया। हमेशा कुत्ते से डरनेवाली बिल्ली आज अपने बच्चों को बचाने के लिए अपने डर से लड़ी थी। उसने अपनी जानपर खेलकर अपने बच्चों की रक्षा की।

वो दृश्य देखकर मैं हैरान रह गई और सोचने के लिये मजबूर हो गई कि जब वो एक छोटा सा जीव होकर भी अपने बच्चों की रक्षा कर सकती है, उनके लिए वो मौत से भी लड़ सकती है तो मैं तो एक इंसान हूं , तो क्या मैं अपने बच्ची की रक्षा नहीं कर सकती?

मैं सिर्फ एक पत्नी और एक बहु ही नहीं हूं बल्कि एक मां भी हूं और एक मां कभी कमजोर नहीं होती, वो हमेशा मजबूत होती है; फिर चाहे वो मां कोई इंसान हो या चाहे कोई बिल्ली या फिर चाहे कोई भी जीव। मां को कुदरत ने वो शक्ति दी है कि वो अपने बच्चों की रक्षा के लिए सारी हदें पार करजाती है। उस बिल्ली ने मेरी आंखें खोल दी थी, उसने मेरी सोच को बदल दिया, उसने मेरे अंदर की मां को जगा दिया।

उसी पल मैंने ये ठान लिया कि अब चाहे जो भी हो मैं अपनी बच्ची की रक्षा करूंगी, मैं उसके साथ अन्याय नहीं होने दूंगी फिर चाहे मुझे इसके लिए जिसका भी विरोध करना पड़े।

अगले दिन मैंने पूरी दृढ़ता और विश्वास के साथ अपना फैसला सबको सुना दिया कि मैं इस बच्ची को जन्म दूंगी और अगर किसीने भी मुझसे अबॉर्शन करवाने के लिए ज़बरदस्ती की तो मैं पुलिस के पास भी जा सकती हैं। मेरा ये बदला हुआ रूप देखकर सब हैरान थे। अगले कुछ दिनों तक सभी मुझसे नाराज़ थे। लेकिन फिर धीरे -धीरे मेरे पति को भी मेरी बात समझ आई और फिर उन्होंने भी मेरे फैसले में मेरा साथ दिया। उस दिन एक मां ने दूसरी मां को सबक दिया था, मां होने का मतलब सिखाया था।

अब मैं एक बदली हुई ऋतु हूं, जो कमज़ोर नहीं है, बल्कि मज़बूत है, विश्वास से भरी है। उस दिन मैं ये जान गई कि भगवान भी उन्हीं की मदद करते हैं जो ख़ुद अपनी मदद करते हैं और जादू की छड़ी हमारे अपने ही भीतर छिपी होती है और वो है हमारी हिम्मत और हमारा ख़ुद पर विश्वास।
( समाप्त )


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