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खोटा सिक्का

One selected story from Hindi Story Competition 'नगेन्द्र साहित्य पुरस्कार', 2020

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स्वरचित हिन्दी कहानी प्रतियोगिता - Dec, 2022
Result   Details
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खोटा सिक्का
लेखक - डा. नरेंद्र शुक्ल, Sector 21, Panchkula, Hariyana
One selected story from Hindi Story Competition 'नगेन्द्र साहित्य पुरस्कार', 2020



"....ऑटो!" बस से उतरकर कंधे पर लटके बैग को संभालते हुये बस अडडे के सामने चौराहे पर खड़े ऑटोवाले को मैंने हाथ के इशारे से बुलाया। ऑटोवाला बस से उतरती सवारियों की ओर ही देख रहा था। इशारा पाकर वह चौराहे से यू- टर्न लेकर सीधा मेरी ओर आ गया। ड्राइविंग सीट पर बैठे- बैठे ऑटो की खिड़की से बाहर सिर निकालकर बोला, "जी साहब, कहां चलना है?"

मैंने उस पर सरसरी नज़र डाली। वह छरहरे बदन का लगभग 25- 30 वर्ष का युवक होगा। रंग साँवला था, लेकिन चेहरे की गढ़न सुघड़ थी। काले रंग की जींस व पीले रंग की टी- शर्ट उस पर बेहद फ़ब रहा था।

"उद्योग भवन तक ले चलोगे?" मैंने दायें हाथ से ऑटो में सामने की ओर लगी छड़ को पकड़ते हुये, थोड़ा झुककर भीतर झाँकते हुये पूछा।

"हां सर, क्यों नहीं ले चलेंगे। हमारा तो काम ही यही है।" वह होंठों पर मुस्कान लाते हुये बोला।

"पैसे क्या लोगे?"

"अस्सी रूपये सर।"

"अस्सी रूपये! यहॉं से आधे घंटे का तो रास्ता है।" मैंने यों ही रास्ते की सही स्थिति व किराये का अंदाज़ा लगाने के लिये कह दिया। मैं दिल्ली पहली बार आया था। दिल्ली में ऑटोवाले सवारियों से पैसा लूटते हैं। नज़दीक स्थान को भी घुमा- फिराकर दूर बना देते हैं ऐसा मैंने सुन रखा था।

उसने हैरानी से मेरी ओर देखा और बोला, "आधा घंटा सर? क्या बात कर रहें हैं। इंडिया गेट के पास है। किसी से भी पूछ लीजिये। यहां से पूरे एक घंटे का रास्ता है।"

मैंने उसे गौर से देखा। उसके चेहरे पर अजी़ब- सी मासूमियत आ गई थी। न जाने क्यों मुझे उस पर विश्वास हो गया। आटो पर बैठते हुये मैंने कहा, "अच्छा ठीक है, चलो . . . पर, ज़रा जल्दी। मुझे 12 बजे से पहले ऑफिस पहुंचना है।"

उसने बायें हाथ की कलाई पर बंधी घड़ी देखी;11 बजकर 5 मिनट हो रहे थे। "कोशिश करूँगा सर अगर, सड़क पर जाम न हुआ तो मैं आपको 12 बजे से पहले ही पहुंचा दूंगा।"

मैं आश्वस्त हो गया। उसने ऑटो स्टार्ट किया और चल पड़ा। सड़क पर लाल किले के पास काफी ट्रैफिक था। कार, स्कूटर, रिक्शेवाले सब एक- दूसरे से आगे निकल जाना चाहते थे। इतने ट्रैफिक में प्राइवेट बसें हार्न बजाती हुई कैसे आगे निकल रहीं थी, कहा नही जा सकता। एक अधेड़ सामने से आती टैक्सी के नीचे आते- आते बचा।

"ओह माई गाड।" मेरा मुंह खुला- का खुला रह गया। टैक्सी वाले के लिये ये रोज की बात थी। उसे कोई फ़र्क पड़ा। वह कुछ बुदबुदाता हुआ आगे बढ़ गया। मैंने ऑटोवाले से पूछा, "क्यों भाई, यहां रोज इतना ट्रैफिक होता है?"

"यस सर। इतवार को इससे भी ज़्यादा रश होता है।" वह मेरी ओर मुंह घुमा कर बोला।

वह इतने ट्रैफिक में बड़ी सफाई से ऑटो निकालता हुआ आगे बढ़ जा रहा था। मैं उसकी ड्राइविंग से प्रभावित हुये बिना न रह सका। "भाई, तुम आटो कमाल का चलाते हो। कब से चला रहे हो?"

"फ्राम द लास्ट थ्री इयर सर।"

मैं चौंका! ऑटोवाला और अंगे्रज़ी! मैंने आंखें फाड़कर पूछा, "तुम पढ़े- लिखे हो? ""

"यस सर। ग्रैजुएट हूं।"

मुझे विश्वास नहीं हुआ। "" ग्रैजुएट! पर ग्रैजुएट होकर आटो चला रहे हो! कोई ढ़ंग का काम क्यों नहीं कर लेते।"

"" सर, कोई काम घटिया नहीं होता। घटिया होती है हमारी सोच। हमारा दिमाग़।" वह कुछ रूककर बोला, "मेहनत करता हूं सर। कोई चोरी, डकैती नहीं करता। मेहनत करना कोई गलत कार्य नहीं।"

उसकी बातों ने मुझे छोटा कर दिया। फिर भी, अपने आप पर संयम रखते हुए मैंने उसे सलाह दी, "पर यार, तुम कोई नौकरी भी तो कर सकते हो।"

"नौकरी! क्या बात कर रहें हैं साहब? आज़कल के ज़माने में बिना पैसे के कहीं नौकरी मिलती है? कई कलैरिक्ल टैस्ट पास किये। और इस बार तो ऑफिसर ग्रेड भी पास किया। मगर, हर बार इन्टरव्यू में रह जाता हूं। पता नहीं क्या कमी है मुझ में। सब पता है मुझे, उन्हें क्या चाहिये।" उसने हिकारत से खिड़की से बाहर सिर निकालकर थूक दिया। मैं देश में लगातार बढ़ती हुई बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, बेईमानी व घूसखोरी की समस्या से भली- भांति अवगत था। आज़कल आम व्यक्ति के लिये इन तमाम समस्याओं से जूझ पाना सचमुच एक जटिल समस्या है। लिहाज़ा मैंने उसे और दुःखी करना ठीक न समझा। बात बदलते हुये पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है?"

"खोटा सिक्का।"

"खोटा सिक्का! भाई, यह क्या नाम हुआ!"

"यही नाम है मेरा सर। मैं एक ऐसा सिक्का हूं जो कहीं नहीं चलता। किसी के काम का नहीं। एकदम नकारा।" वह सिसकने लगा।

मैंने उसकी पीठ थपथपाई। सांतवना पाकर वह बोला, "" घर पर सब मुझे इसी नाम से बुलाते हैं। पर मां, मां के लिये मैं अब भी दिनेश हूं। दिनेश खंडिलिया।"

"तुम्हारा घर कहां है दिनेश? और परिवार में कौन- कौन है?" मैंने विषय बदलकर एक साथ दो प्रश्न किये। वह शांत स्वर में बोला, "मैं चंडीगढ़ का रहने वाला हूं सर। मेरे पिता जी पिछले वर्ष ही डाकखाने से रिटायर हुये हैं। अधिक्षक के पद पर थे। घर पर मां- बाप के अलावा मेरे दो बड़े भाई हैं; राकेश व महेश। राकेश डाकघर में ही काम करता है। महेश की कपड़े की दुकान है पालिका बाज़ार में। और मैं सबसे छोटा बेरोजगार। किसी काम का नहीं। भाई-भाभियां सभी ताने देते थे। और एक दिन बड़े भाई ने ओपनली कह दिया, 'दिनेश, अगर तुम कोई काम- धंधा नहीं कर सकते तो तुम्हारे लिये इस घर में कोई जगह नहीं है। हम तुम्हें इस उम्र में घर बैठा कर नहीं खिला सकते।' पिता जी ने भी मौन रूप में भाई साहब की ही बातों का समर्थन किया। मां, मां बेचारी रोती रही लगातार, पर उसकी कौन सुनता। मेरे लिये सब कुछ सह पाना अलबत्ता कठिन था। मैं उसी वक्त घर छोड़कर यहां भाग आया।"

"मां से मिले कितना टाइम हो गया?" मैंने पूछा।

"दो साल सर।"

"इस बीच क्या घर वालों से तुम्हारी कोई बात नहीं हुई?"

"नो सर। पिछले महीने मैंने ही एक पत्र मां को लिखा था। क्या करूं रहा नहीं जाता। मां है न! जवाब में, पड़ोसी दीनानाथ जी के हाथों का लिखा, मां का पत्र आया। दीनानाथ जी हमारे पड़ोस में ही रहते हैं। स्थानीय सरकारी हाई स्कूल में प्राध्यापक हैं। लिखा था, 'प्रिय दिनेश, तुम्हारे चले जाने से सारा घर सूना- सूना लगता है। ऐसा लगता है जैसे तुम्हारी खिलखिलाहट सुने युग बीत गया हो। महेश और रमेश अलग हो गये हैं। तुम्हारे पिता जी की सारी जमा- पूंजी बंटवारे में बंट गई। पेंशन के सिवाय अब कुछ शेष नहीं रहा। तुम्हें बहुत याद करते हैं। किसी से कहते कुछ नहीं, लेकिन कमरे में अकेले रोते रहते हैं। किसी को महसूस नहीं होने देते। तुम्हारी याद में घुले जा रहे हैं। मैं तो उनकी अर्द्धांगिनी हूं न! मुझसे कोई बात छिपी नहीं है।'"

अपनी कहानी सुनाते- सुनाते उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। सामने चौराहा आ रहा था। रैड लाइट थी। हमारी ओर का सारा ट्रैफिक रूका हुआ था। दिनेश आटो रोक कर रूमाल से अपने आंसू पोंछने लगा। तभी एकाएक पीछे से एक ऑटो बिल्कुल हमार बगल में आकर रूक गया। ऑटोवाले ने दिनेश की ओर मुंह करके जोर से आवाज़ लगाई, "दिनेश।"

दिनेश ने मुंह घुमाकर उसकी ओर देखा और चिल्लाया, "ओह, काका तुम! तुम इस तरफ कहां जा रहे हो?"

"दिनेश, हम सुबह से तूका खोज रहा हूं। तोहरे घर से तोहरे पिता जी का फौन था। तोहरी मइया होस्पीटल में है। दोनो गुर्दा खराब हो गये हैं। डागडर साहिब का कहना है कि अगर, फौरन यक गुर्दा न बदला गवा तो खतरा होय सकत है। जा बचवा जा, बचाय ले अपनी मइया का।" काका आंखों से बहते मोतियों को न रोक पाये।

"पर, काका ऐसे कैसे हो सकता है? दो साल पहले तो बिल्कुल ठीक- ठाक थीं?" दिनेश को काका की बातों पर एकाएक विश्वास नहीं हुआ।

"दुःख कोई बता कर नहीं आता बचवा। देर मत कर। कलाई पर बंधी घड़ी को देखकर, "हिमगिरी का टाइम होय गवा है। फौरन गाड़ी पकड़ ले।"

"राकेश व महेश ने कुछ नहीं किया?" दिनश ने दुःखी हदय से पूछा।

"मतलबी दुनिया है बचवा। तोहर पिता जी कह रहे थे कि दोनों ने साफ मना कर दिया है। वे अपनी जान जोखि़म मा नाहीं डालना चाहते।"

वह मन- ही मन बुदबुदाने लगा, "नहीं मां, तेरा दिनेश अभी ज़िदा है। वह अपनी जान देकर भी तुझे बचायेगा। तू मेरे लिये इस धरती पर सबसे कीमती है मां। मैं तुझे ऐसे नहीं जाने दूंगा।"

वह फूट- फूट कर रोने लगा। मैंने उसके कंधे पर हाथ रखकर सांत्वना दी, "दिनेश तुम फौरन अपनी मां के पास चले जाओ। तुम घबराओ नहीं। भगवान पर भरोसा रखो। भगवान सब भला करेंगे।"

सांत्वना पाकर वह कुछ शांत हुआ। काका की ओर उन्मुख हो धीरे से बोला, "काका प्लीज़, सर को उद्योग भवन तक पहुंचा दीजिए।"

"हां हां यह भी कोई कहने की बात है बचवा।"

काका मेरी ओर देखकर बोले, "आइये बाबूजी। इधर बैठ जाइये।"

मैं एक बार फिर से दिनेश के कंधे को थपथपा कर काका के आटो में बैठ गया। मैंने दिनेश को पैसे देने चाहे पर उसने लिये नहीं। बस सजल नेत्रों के साथ दोनों हाथ जोड़ दिये।
( समाप्त )
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